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संपादकीय : न्यायाधीश रोकड़े का तबादला!

भारत की न्यायिक व्यवस्था पर दबाव है यह अब कोई छिपी बात नहीं रह गई है। भाजपा ईडी, सीबीआई जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों और अदालतों के जरिए देश पर शासन कर रही है। लोकतंत्र, चुनाव आदि सब दिखावा है। विशेष सत्र न्यायालय के न्यायाधीश राहुल रोकड़े के जल्दबाजी में किए गए तबादले से लोगों के मन में कुछ संदेह की तरंगें उठ रही हैं। मुंबई की इस विशेष सत्र अदालत में विधायकों, सांसदों, मौजूदा मंत्रियों के मामलों की सुनवाई होती है। उसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष के जन प्रतिनिधि भी हैं। न्यायाधीश रोकड़े के सामने जब अजीत पवार के शिखर बैंक घोटाले का मामला शुरू हुआ तो उस वक्त पवार विपक्षी पार्टी में थे और अजीत पवार भ्रष्ट हैं और उन्होंने और उनके लोगों ने मिलकर शिखर बैंक में बड़े घोटाले किए, ऐसा सत्ताधारी यानी फरियादी दल का साफ कहना था। उन्होंने यह साबित करने के लिए अदालत में सबूत पेश किए कि पवार ही इस घोटाले के मास्टरमाइंड थे। मामला अंतिम चरण में पहुंच गया और जैसे ही इस बात का संकेत मिला कि इस मामले में वे फंस सकते हैं, अजीत पवार ने पलटी मारी और सीधे भाजपा में प्रवेश कर गंगा-स्नान कर लिया। इसलिए अब पवार को घोटाले से बाहर निकालने की जिम्मेदारी फडणवीस को निभानी होगी, लेकिन जिस अदालत के सामने सरकारी पक्ष शिखर बैंक घोटाले के सबूत पटक कर पवार को दोषी ठहराने की बात कह रहा था, उसी अदालत के लिए दुश्वारी हो गई। भाजपा ने अजीत पवार को अपनी वॉशिंग मशीन में डाल दिया, लेकिन वहां वॉशिंग मशीन नहीं चलती क्योंकि कोर्ट सबूतों पर आधारित है। न्यायाधीश रोकड़े ने शायद अजीत पवार के शिखर बैंक मामले को दूसरी दिशा में ले जाने से इनकार कर दिया होगा। इसलिए जान पड़ता है कि सरकार ने रोकड़े का सीधा तबादला कर दिया। भ्रष्टाचार के मामलों में शासक खासकर भाजपा पलटी मार सकती है, लेकिन अदालतों के लिए यह संभव नहीं है। छगन भुजबल, एकनाथ खडसे के घोटालों के मामले न्यायाधीश रोकड़े के पास ही चल रहे थे। इन मामलों में भुजबल और उनके भतीजे को गिरफ्तार किया गया था। खडसे के दामाद को भी गिरफ्तार किया गया। भुजबल अब भाजपा के साथ सत्ता में हैं, जबकि खडसे दोबारा भाजपा में शामिल होने वाले हैं। इसलिए भाजपा की वॉशिंग मशीन नीति के अनुसार इन दोनों को इन मामलों में संरक्षण मिलना है। न्यायाधीश रोकड़े के सामने मामले की सुनवाई हुई और सरकार ने कहा कि दोनों के खिलाफ पुख्ता सबूत हैं, लेकिन न्यायाधीश रोकड़े के लिए पलटी मारना संभव नहीं रहा होगा। इसीलिए सरकार ने न्यायाधीश का सीधा तबादला कर समन्वय का रास्ता अपनाया। रोकड़े की अदालत में कई मामले ईडी, सीबीआई द्वारा दायर अपराधों से भी संबंधित हैं। इन मामलों को लेकर काफी हो-हल्ला मचाया गया था। जिन प्रमुख भाजपा विरोधी नेताओं पर ईडी ने मामला दर्ज किया था, उनमें से अधिकांश भाजपा के तंबू में चले गए। इसलिए ‘ईडी’ के लिए उनके खिलाफ आरोप पत्र दायर करने का समय आ गया। इन सभी मामलों की निष्पक्ष सुनवाई की जिम्मेदारी न्यायाधीश रोकड़े की थी, लेकिन सुनवाई के दौरान ‘आरोपी’ ने दलबदल कर लिया और अभियोजन पक्ष भाग निकला। इससे ईडी आदि संस्थाओं की मेहनत बर्बाद हो गई। फिर आबरू अलग से गई। एक ओर जहां ‘ईडी’ के नब्बे प्रतिशत मामले झूठे और राजनीतिक दबाव में तैयार किए गए हैं। भाजपा विरोधियों को जेल भेजना और यदि वे भाजपावासी हो गए तो मामलों को खत्म कर देना, यह सरकारी धन और श्रम की बर्बादी है। ईडी के मामले कोर्ट में पिटते हैं। ईडी का कोई भी मामला आज तक नहीं सुलझा। अनिल देशमुख, संजय सिंह, संजय राऊत के मामले में कोर्ट ने ईडी की कार्य पद्धति की आलोचना की। कोर्ट ने कहा कि इन तीनों को नाहक फंसाया गया। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ईडी ने गिरफ्तार किया और पांच महीने तक जेल में रखा। झारखंड हाई कोर्ट ने सोरेन को जमानत देते हुए ईडी को फटकार लगाई। हाई कोर्ट ने कहा कि सोरेन को नाहक गिरफ्तार किया गया है और उनके खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग का कोई मामला नहीं चल सकता। तो सोरेन के पांच महीने बेवजह जेल में बिताने के बारे में क्या? कथित शराब घोटाले में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कोई सबूत नहीं है ऐसा कह कर दिल्ली की ‘पीएमएलए’ अदालत ने केजरीवाल को जमानत दे दी, लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट ने केजरीवाल की जमानत को स्थगन देकर इस संदेह को आधार दे दिया कि भाजपा सरकार न्यायालयों पर दबाव बना रही है। न्यायाधीश रोकड़े की तरह झारखंड के जिस न्यायमूर्ति ने हेमंत सोरेन को जमानत दी और जिस न्यायाधीश ने केजरीवाल को जमानत दी, अब यह देखना है कि क्या उन्हें भी तबादले की सजा मिलती है। भाजपा और संघ परिवार चाहते हैं कि न्याय व्यवस्था उनके ताल पर नाचे। पिछले दस वर्षों में हाई कोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक संघ की विचारधारा वाले लोगों की नियुक्ति की गई है। सरकारी वकील भी इसी प्रकार नियुक्त किए गए। एड. उज्ज्वल निकम एक प्रसिद्ध सरकारी वकील हैं। वह मुंबई से भाजपा के लोकसभा उम्मीदवार बने। निकम के हारते ही सरकार ने उन्हें फिर से विशेष सरकारी वकील के तौर पर नियुक्त कर दिया। इससे जो संकेत मिलता है वह खतरे की घंटी है। न्यायाधीश रोकड़े ने वॉशिंग मशीन का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया। उन्होंने सत्ता पक्ष के विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर, नवनीत राणा आदि को विशेष छूट देने से इनकार कर दिया। जब नार्वेकर लगातार अदालत से अनुपस्थित रहे तो न्यायाधीश रोकड़े ने उन पर जुर्माना लगाया। सत्ता पक्ष को यह क्योंकर पसंद आएगा? इसीलिए न्यायाधीश रोकड़े का तबादला संदिग्ध है। न्यायाधीशों के तबादले होते रहते हैं। इसमें कोई नई बात नहीं है, लेकिन पिछले दस सालों में न्यायाधीशों की नियुक्तियां और तबादले शासकों का राजनीतिक खेल बन गए हैं। किसी को बचाने और किसी को फंसाने के लिए यह खेल चल रहा है। न्यायाधीश रोकड़े को क्या उसी खेल का प्यादा बनाया गया है?

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