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संपादकीय : ट्रूडो का इस्तीफा

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने आखिरकार पद छोड़ने का फैसला कर लिया है। वे अपनी पार्टी ‘लिबरल पार्टी ऑफ कनाडा’ के नेता पद से भी इस्तीफा देंगे। पिछले कुछ समय से कनाडा और ट्रूडो की पार्टी में चल रहे घटनाक्रम के चलते इन महाशय पर पद छोड़ने का वक्त आने ही वाला था। ट्रूडो पर न सिर्फ पार्टी से, बल्कि पार्टी के बाहर से भी इस्तीफा देने का दबाव था। अभी दो महीने पहले ही कनाडा की वित्तमंत्री क्रिस्टिया फ्रीलैंड ने अचानक इस्तीफा दे दिया था। यह शायद ट्रूडो के लिए आखिरी झटका साबित हुआ और लगातार नौ साल तक प्रधानमंत्री रहे ट्रूडो को अपने पद त्याग की घोषणा करनी पड़ी। वह २०१५ में पहली बार कनाडा के प्रधानमंत्री बने। २०१९ में उनकी पार्टी की सीटें घट गर्इं, लेकिन वही पार्टी सत्ता में आ गई। जिसकी वजह से ट्रूडो दोबारा प्रधानमंत्री बने, लेकिन जस्टिन ट्रूडो की सत्ता पर पकड़ और उनकी लोकप्रियता घटने लगी। ट्रूडो को घरेलू राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक मोर्चे पर बेचैनी का भी झटका लगा। अमेरिका में ट्रंप युग फिर से शुरू होने से कनाडा पर आर्थिक संकट और बढ़ने की आशंका है। महाशय ट्रूडो हर तरफ से जाल में फंस गए थे। उनका शासन भारत के लिए सिरदर्द था। मुख्य रूप से
मोदी सरकार के साथ
ट्रूडो सरकार के संबंध टूट जाने की हद तक तनावपूर्ण थे। खालिस्तानी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या, ट्रूडो सरकार द्वारा भारत व केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह पर लगाए गए सीधे आरोप और कनाडा में कई आतंकियों का मारा जाना, ऐसे कई कारणों से भारत-कनाडा के रिश्ते बेहद तनावपूर्ण हो गए थे। ट्रूडो के इस्तीफे से ये तनाव कितना कम होता है और नए राष्ट्रपति के चुनाव के बाद कनाडा की भारत नीति में कितना सुधार होता है अब दोनों देशों के रिश्ते इस बात पर निर्भर करेंगे। ट्रूडो की जगह कविता आनंद का लेना भारत के लिए सकारात्मक कहा जा रहा है, लेकिन ये सब बातें हैं। क्योंकि जस्टिन का उत्तराधिकारी कौन होगा और जस्टिन खुद क्या खेल खेलते हैं यह भी महत्वपूर्ण होगा। क्योंकि अगर उन्हें इस्तीफा देना भी पड़ा है तो जस्टिन ट्रूडो ने ‘हम योद्धा हैं’ कहकर अपने बारे में चेता दिया है। उनकी यह चेतावनी कितनी सच्ची और कितनी खोखली है यह तो भविष्य में ही पता चलेगा। लेकिन एक बात सच है कि ट्रूडो शासन का जाना भारत के लिए अच्छी खबर कही जा सकती है। क्योंकि जस्टिन के पिता पियरे ट्रूडो का शासन भी भारत के लिए सिरदर्द ही था। उस वक्त इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। उस समय भी भारत-कनाडा के रिश्ते बेहद तनावपूर्ण थे और उसका
केंद्र बिंदु भी ‘खालिस्तान’
ही था। पियरे के बेटे जस्टिन के शासनकाल में भी खालिस्तान ही भारत के साथ विवाद का मुद्दा बना रहा। इसलिए भारत और कनाडा के बीच अच्छे व्यापारिक संबंधों के बावजूद राजनीतिक संबंध बेहद कड़वे बने रहे। भले ही ट्रूडो पर्व खत्म हो गया हो, लेकिन उनकी लिबरल पार्टी का एक बड़ा जनाधार सिख मतदाता हैं, इसलिए इस बात की संभावना कम है कि कनाडा खालिस्तान के प्रति अपनी नीति में ‘यू-टर्न’ लेगा। हालांकि, दोनों देशों के रिश्तों में जो खटास आई है वह उससे आगे बढ़कर बातचीत की राह पर चल सकती है। पिछले कुछ महीनों से विश्व राजनीति में ‘परिवर्तन की हवा’ चल रही है। पिछले साल बदलाव की इसी बयार ने यूरोपीय संघ, ब्रिटेन, प्रâांस और ईरान के आम चुनावों में उथल-पुथल मचा दी थी। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक, न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने इस्तीफा दे दिया। प्रâांस के प्रधानमंत्री मिशेल बर्नियर पर पद संभालने के तीन महीने बाद ही पद छोड़ने की नौबत आ गई। राजनीतिक उथल-पुथल के कारण बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को अपने पद के साथ-साथ देश भी छोड़ना पड़ा। इसमें अब कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो का इस्तीफा भी जुड़ गया है। हालांकि ट्रूडो को देश के आंतरिक दबाव के साथ-साथ पार्टी के भीतरी दबाव के कारण इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा, लेकिन उन्हें मोदी सरकार से पंगा लेने की कीमत चुकानी पड़ी, यदि कल मोदी भक्त इस तरह की शेखियां बघारने ही लगें तो इसमें कोई आश्चर्य है?

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