अपने पड़ोस के एक और देश में बड़ा सियासी उलटफेर हुआ है। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को देश में व्याप्त जबरदस्त हिंसा के चलते इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा साथ ही उन पर अपनी बहन के साथ देश छोड़ने की भी नौबत आ गई। सरकारी नौकरियों में आरक्षण खत्म करने की मांग को लेकर पिछले महीने शुरू हुआ उग्र आंदोलन आखिरकार हसीना के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने और देश छोड़ने के साथ समाप्त हुआ। जुलाई महीने में इस आंदोलन में १०० से ज्यादा लोग मारे गए थे। हालांकि, बीच में विवाद शांत होगा ऐसी तस्वीर बनती नजर आई, लेकिन यह अस्थायी शांति तूफान से पहले की साबित हुई। दो-तीन दिन पहले फिर आंदोलन की आंधी चली और उसमें हसीना सरकार उड़ गई। सरकारी नौकरी में आरक्षण रद्द की वजह से शुरू आंदोलन शेख हसीना के इस्तीफे तक पहुंच गया। राजधानी ढाका समेत कई शहरों में हिंसा की लहरें भड़क उठीं। सरकार ने देशव्यापी कर्फ्यू लगा दिया। सोशल मीडिया पर बैन लगा दिया। १४ पुलिसकर्मियों सहित १०० से अधिक प्रदर्शनकारी मारे गए। फिर भी आंदोलन दब नहीं पाया। हसीना के खिलाफ सड़कों पर उतरने वाले प्रदर्शनकारियों की संख्या चार लाख से अधिक हो गई। प्रदर्शनकारियों ने न केवल तांगेल और ढाका में राजमार्गों पर कब्जा कर लिया, बल्कि उन्होंने हसीना के आवास तक मार्च भी किया। आखिरकार, शेख हसीना को अपनी बहन के साथ देश छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा। बांग्लादेश में पिछले १५-१६ साल से चला आ रहा ‘हसीनाराज’ इस तरह खत्म हो गया। मूलरूप से, २०२४ की शुरुआत में प्रधानमंत्री के रूप में उनका चुनाव भी विवाद और संदेह से घिरा हुआ था। विरोधियों और आलोचकों ने इस चुनाव प्रक्रिया पर ही आपत्ति जताई। मुख्य विपक्षी दल पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया की ‘बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी’ ने भी चुनाव का बहिष्कार किया। लेकिन शेख हसीना का शासन तानाशाही तरीके से जारी रहा। पिछले कुछ समय में वहां महंगाई और बेरोजगारी की समस्याओं ने तांडव मचा रखा था। वहां भड़के आंदोलन की एक वजह यह भी थी। किसी भी सरकार के लिए आम लोगों की आजीविका सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा होना चाहिए, लेकिन जब शासक इसे भूल जाते हैं या केवल ‘लफ्फाजी’ करके जुमलेबाजी के बल पर शासन करने लगते हैं, तो जन आंदोलन की आंधी चलती है और उस आंधी में शासन पत्ते की तरह उड़ जाता है। दो साल पहले पड़ोसी देश श्रीलंका में भी यही हुआ था। भारी महंगाई, अन्न की भीषण कमी और आर्थिक संकटों के चंगुल में फंसकर वहां का आम नागरिक सड़कों पर उतर आया था। प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति गोटाभाया राजपक्षे समेत कई सत्ताधारी सांसदों के घरों और दफ्तरों में आग लगा दी। अब बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को भारी जनविरोध की राहों के चलते देश से बाहर निकलने की नौबत आ गई। हमारे देश की भक्त मंडली जो एक ‘नैरेटिव’ सेट करती रहती है, वह यह कि भारत के पड़ोसी देशों में हो रही उथल-पुथल के पीछे चीन और अमेरिका का हाथ है। लेकिन उन देशों में जो आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अराजकता है, उसके लिए जिम्मेदार शासक हैं और उन शासकों के विरुद्ध उठ खड़े हुए लोगों की भड़की आग का क्या? चीन की ओर उंगली उठाने की जुमलेबाजी से इस हकीकत को वैâसे छिपाया जा सकता है? बांग्लादेश के मौजूदा हालात इससे कहां अलग थे? प्रधानमंत्री शेख हसीना की तानाशाही प्रवृत्ति, विरोधियों को जेल में डालना, छात्र आंदोलन को कुचलने की कोशिश करना, ये सभी कड़ाइयों का रूपांतरण जनआक्रोश में होने ही वाला था। आक्रोश इतना तीव्र था कि शेख हसीना के पिता और बांग्लादेश के निर्माता शेख मुजीबुर्रहमान के योगदान को भी नाराज जनता ने भुला दिया। शेख हसीना, जिन्हें ‘लड़ाकू बेगम’ कहा जाता था और जिन्होंने देश को सैन्य शासन से मुक्त कराया था, पर उसी सेना के हेलिकॉप्टर में देश से भागने की नौबत आ गई। यह सभी तानाशाह शासकों के लिए एक चेतावनी है। दो महीने पहले लोकतांत्रिक तरीकों से जनमत के चलते सत्ता से बाहर होने से बाल-बाल बचे भारत के जुमलेबाज और तानाशाह शासकों के ध्यान क्या कुछ आ रहा है? समझने वालों को इशारा काफी है!