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संपादकीय : अंधविश्वास के शिकार!

उत्तर प्रदेश के हाथरस में मंगलवार को जो मौत का तांडव हुआ, वो भयावह है। जबकि पूरी दुनिया विज्ञान के युग में प्रौद्योगिकी और प्रगति के शिखर की ओर आगे बढ़ रही है, क्या हमें अभी भी पाषाण युग के जंग लगे पोखरों में गोता लगाने को धन्यता माननी चाहिए? हाथरस में भगदड़ की दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने यह सवाल जरूर खड़ा कर दिया है। कोई एक पाखंडी बाबा सत्संग के नाम पर अपने हजारों भक्तों को इकट्ठा करता है। सत्संग के बाद भोंदूबाबा की चरणधूलि को माथे पर लगाने के लिए भगदड़ मच जाती है। हजारों लोगों की भीड़ एक-दूसरे को रौंदती और कुचलती हुई भागने लगती है। जो लोग इस भगदड़ में गिर जाते हैं वे कीचड़ में कुचल जाते हैं और दम घुटने से मर जाते हैं। कइयों का दलदल भरे गड्ढे में गिरकर दुखद अंत होता है। यह पूरी घटना जितनी दिमाग सुन्न करने वाली है उतनी ही क्रोधित करने वाली भी है। इस हादसे में १२१ लोगों की मौत हो गई है और कई घायलों का अभी भी विभिन्न अस्पतालों में इलाज चल रहा है। मृतकों में १०८ महिलाएं और १२ बच्चे शामिल हैं। भगदड़ की इस त्रासदी के लिए भोंदूबाबा और सत्संग के आयोजकों की तरह ही उत्तर प्रदेश सरकार भी उतनी ही जिम्मेदार है। सरकार ने सत्संग की इजाजत दी; लेकिन प्रशासन भीड़ नियंत्रण, पार्किंग व्यवस्था, पर्याप्त बुनियादी ढांचे से गाफिल रहा। कई लोगों की जान सिर्फ इसलिए चली गई क्योंकि उन्हें समय पर पानी और प्राथमिक उपचार नहीं मिला। घायलों को ले जाने के लिए कोई एंबुलेंस नहीं थी। घायलों और बीमारों को एक पर एक रखकर टेंपो से अस्पताल भेजा गया। लाशों के इस ढेर को देखकर एक पुलिसकर्मी की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई। अस्पताल में मौजूद घायलों और मृतकों के परिजनों का दिल को चीर देने वाला विलाप और आक्रोश चल रहा था। लोग इलाज के लिए गुहार लगा रहे थे, लेकिन अस्पताल में डॉक्टर नहीं थे। डॉक्टर आए तो दवाइयां उपलब्ध नहीं थी। जब हाथरस में ये सब मौत का तांडव चल रहा था, तब प्रधानमंत्री मोदी संसद में ‘विकसित भारत’ और ‘अमृत काल’ पर भाषण दे रहे थे। संसद में पेश की गई विकास की तस्वीर और हाथरस की हकीकत में जमीन आसमान का अंतर है। लेकिन इसके लिए सरकार के पास अंधविश्वासों को पीछे छोड़ने की दृष्टि होनी चाहिए। मंगलवार दोपहर एक बजे जब हाथरस के फुलरई गांव में घटना हुई उस वक्त भोंदूबाबा गांव में ही थे। लेकिन राहत कार्य में हाथ बढ़ाने के बजाय, उसने अपना मोबाइल फोन बंद कर दिया और सत्संग स्थल से फरार हो गया। संकट के समय कीड़े-मकोड़े भी एक-दूसरे की मदद के लिए दौड़ पड़ते हैं, लेकिन भोले बाबा के सत्संग में इसका उल्टा हुआ। जब बाबा के भक्त एक-दूसरे के पैरों तले कुचलकर मारे जा रहे थे, तब यह ढोंगी बाबा भक्तों को संकट में छोड़कर भाग गया। ऐसे व्यक्ति को संत वैâसे कहा जा सकता है? जो मृत श्रद्धालुओं के परिजनों को सांत्वना नहीं देता, अस्पताल जाकर घायलों का हालचाल लेने का शिष्टाचार नहीं दिखाता, वह वैâसा संत-महात्मा है? सनातन हिंदू धर्म और उसके रीति-रिवाजों की तो बात ही छोड़ दीजिए; लेकिन क्या जो व्यक्ति साधारण इंसानियत और मानवधर्म को नहीं जानता, उसे सत्संग करने का भी अधिकार है? इस बाबा का असली नाम सूरज पाल है। उत्तर प्रदेश पुलिस बल में काम करते समय उसके खिलाफ यौन शोषण और उत्पीड़न के ५ मामले दर्ज किए गए थे। गिरफ्तारी के बाद उसे पुलिस बल से बर्खास्त कर दिया गया। जेल से छूटने के बाद उसे इस बात का ज्ञान हुआ कि उसमें ईश्वरीय अंश है और उसने अपना नाम बदलकर नारायण हरि उर्फ ​​साकार विश्वहरि रख लिया। अन्य बाबा लोगों की तरह भगवा वस्त्र पहनने के बजाय, वह एक सूट-बूट वाला धर्म उपदेशक बन गया। महंगे सफेद कोट, सफेद जूते, महंगी कारों, महंगे गॉगल्स का शौकीन सूरज उर्फ ​​नारायण हरि ने आगरा और उसके आसपास सत्संग शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उसकी प्रसिद्धि और भक्तसंप्रदाय उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान, हरियाणा तक पैâल गई। इस बाबा का उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में ३० एकड़ का आश्रम है। आश्रम में भगवान की कोई मूर्ति नहीं है। भोल-भाले लोग उसे भगवान शिव मानकर पूजते हैं। इसलिए उसका नाम भोलेबाबा पड़ा। यह भी आश्चर्य की बात है कि वैâसे लोग बिना किसी पूरी जानकारी के ऐसे पाखंडी और भोंदू बाबाओं का अनुसरण करते हैं। इसके अलावा, ऐसे लुटेरे बाबाओं की अंधविश्वासी फौज अंतत: वोट बैंक ही होते हैं। अत: यह तो कहना ही पड़ेगा कि यह देश और धर्म का दुर्भाग्य है कि राजनीतिक दलों और सरकारों का भी ऐसे फर्जी बाबाओं को संरक्षण मिलता है। हाथरस में एक सत्संग में भगदड़ में मरने वाले सभी १२१ लोग अंधविश्वास के शिकार हैं। आजकल आस्था से ज्यादा अंधविश्वास का बोलबाला है और इसी वजह से ये हादसा हुआ है। आजकल किसी को भी खुद के ईश्वरीय अंश और स्वयं के परमात्मा होने का ज्ञान होता है और इसी कारण देश में पाखंडियों का बोलबाला हो गया है। जेल से छूटा एक यौन शोषण अपराधी जो स्वयंभू भोलेबाबा होने का दावा करता है और लोग उसके सत्संग में जाकर कीड़े-मकोड़े की तरह तड़प कर मरते हैं, यह एक सामाजिक पतन है। क्या कोई हाथरस कांड की जांच करने के बजाय यह सोचने वाला है कि देश को बढ़ते पाखंड से कैसे बचाया जाए?

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