जो आजीवन पीड़ा पाले
उसे मिले और दंड कैसा,
पीड़ित दंडित जीवन ही
बन जाता अभिशाप जीते जी।
भाग्य सुनता नहीं केवल
बोलता उन्मुक्त हो कर,
तुम कर सकते हैं तो कर लो
समय दिया मैंने जी भर।
वाणी की धार खड्ग से पैनी
अंदर बाहर घाव करे,
समय पा सूखे घाव बाहर के
अंदर के रहे सदा हरे।
धर्म अधर्म तुला के दो पलड़े
सम प्रबल होते कभी कभी,
अंतर दोनों में अति महीन
देख न पाएं हों जाते दृष्टिविहीन।
दृष्टि रखो नक्षत्रों पर
ध्यान रहे धरा पर भी,
उथल-पुथल का वास होता
अस्थिर मन कभी-कभी।
एक भूल छोटी सी बदल देती जीवन लक्ष,
कभी विलंब कारण बनता
विकृत मंशा देती दिशा मोड़,
जीवन तो हे घटित घटनाओं का जोड़।
अनगिनत नगाड़ों का शोर लगता नगण्य,
जब सुनाई पड़ता हृदय की ज्वार भाटा का रोर।
प्रत्येक को चाहिए अपना कोई,
जो उसकी सुने अपनी सुनाए
कभी मान आदेश कभी प्रार्थना समझ पाए
अन्यथा, जीवन ग्रहण अंधकार से मुक्त न हो पाए और
पीड़ा ही संजीवनी बन जाए।
-बेला विरदी