मुख्यपृष्ठनमस्ते सामनाप्रथम शिशु जन्म की अनुभूति

प्रथम शिशु जन्म की अनुभूति

विधाता ने बनाए नर और नारी
शारीरिक बल, ओज आया पुरुष के हिस्से
धैर्य, कोमलता, सहनशीलता पा गई नारी।
पुरुष अब परेशान कैसे गुणों में आगे नारी
अब एक राज़ विधाता ने नर को बतलाया
एक जन्म में ही कई बार जन्म लेगी नारी।
जिस घड़ी लगा पता मुझे, मै मां बनने जा रही हूं
स्वयं ही लज्जा स्वाभिमान से भर उठी।
आ गई घड़ी नारित्व को पूर्णत्या निभाने की।
मातृत्व बोझ देता कष्ट, पर रहता मन हर पल संतुष्ट
जन्म दूंगी शिशु को, निभाउंगी सृष्टि की जिम्मेदारी।
प्रतीक्षित दिन आया पीड़ा थी अती भारी
पीड़ा प्रकट न हो यह भी थी लाचारी।
प्रसव काल में लगता था यहीं अंत होगा जीवन का
अजन्मे शिशु को देखना अंतिम चाहत थी मेरी।
मेरे प्रथम प्रसव में एक खोफ पसरा था
जन्म से पहले ही शिशु का हृदय स्पंदन बहुत कम था।
थी दी गई चेतावनी बचेगा शिशु या महतारी
मौन स्वीकृति ‘शिशु जीवन पाये’ थी मेरी।
अपना क्या है, जो होगा देखा जाएगा
मेरा परिवार एक नया सदस्य पा लेगा।
जीवन मृत्यु में अंतर बहुत महीन रह जाता
यम को अक्सर पछाड़ जीत जाती ममता।
तन से हार, मन से नहीं हारती जननी
जब प्रथम रुद्न की जलतरंग सुनती।
बेसूधी में जब थोड़ी चेतना आई
एक नन्ही परी मेरे वक्ष पर थी लिटाई।
धरा पर नहीं गगन में थी उड़ रही मै
अब नारी से जननी पद थी पा गई थी मैं।
बिसरी वेदना, मृदुल मंजुल मुख चूम लिया
मान, स्वाभिमान ममता सब कुछ मैंने पा लिया।
आंखों से जता आभार
परी के पापा ने हाथ मेरा थाम लिया
पा गई जीवन का सबसे बड़ा उपहार मैंने जान लिया।
मेरी परी तू जिए हजारों हजारों साल
यही चाहत है मेरी।
-बेला विरदी

अन्य समाचार

जीवन जंग