मुख्यपृष्ठसंपादकीयन्याय व्यवस्था को आग!

न्याय व्यवस्था को आग!

मोदी जी ने घोषणा की थी कि न खाऊंगा और न खाने दूंगा। लेकिन वास्तव में मोदी से लेकर न्यायाधीशों तक सभी देश को लूट रहे हैं, खा रहे हैं। आम आदमी को या तो न्याय खरीदना पड़ता है या फिर ‘तारीख पर तारीख’ के चक्रव्यूह में फंसकर मरना पड़ता है। दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के घर में अचानक आग लग गई और न्याय व्यवस्था का भंडा फूट गया। जज साहब घर से कहीं दूर गए हुए थे और उनके दिल्ली स्थित सरकारी आवास में आग लग गई। मामला जज साहब के घर का था इसलिए फायरब्रिगेड तुरंत पहुंची। जब फायर फाइटर्स एक खास कमरे में पहुंचे तो क्या देखते हैं? वह पूरा कमरा नोटों के बंडलों से भरा हुआ था। उस एक ही कमरे में १५ करोड़ रुपए नकद थे। यह खबर हवा की तरह पूरे देश में फैल गई और देश की न्याय व्यवस्था की इज्जत थू-थू हो गई। न्यायमूर्ति वर्मा के घर में ये करोड़ों रुपए कहां से आए? न्यायाधीश अपने बंगले के आंगन में पैसे की खेती करते थे क्या? यह जनता को जानना चाहिए। देश की न्याय व्यवस्था भ्रष्टाचार से बुरी तरह प्रभावित है और पिछले दस सालों में यह गंदगी कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा इसी गंदगी में खिला हुआ एक कमल हैं। अरुण जेटली ने एक बार खुलकर कहा था कि न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद मिलनेवाले लाभों और पदों पर नजर रखकर फैसले करते हैं, जबकि कई न्यायाधीश अधिक व्यावहारिक होकर पद पर रहते हुए ही भविष्य की तैयारी कर लेते हैं। इसका मतलब यह है कि हमारे देश में न्यायिक फैसले पैसे और सत्ता के दबाव में हो रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘कोटा’ से जिला न्यायाधीशों से लेकर हाई कोर्ट तक न्यायाधीशों की नियुक्तियां हो रही हैं। सरकारी वकीलों की नियुक्तियां भी इसी तरह से हो रही हैं। मतलब न्याय देने की प्रक्रिया नैतिक और पवित्र नहीं रह गई है, यह साफ दिख रहा है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने कई फैसले
गौतम अडानी को फायदा पहुंचाने
के उद्देश्य से दिए। न्यायमूर्ति मिश्रा के फैसलों से अडानी को ५० हजार करोड़ रुपए का फायदा हुआ और मिश्रा को सेवानिवृत्ति के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष पद मिला। न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद किसी राज्य के राज्यपाल पद की उम्मीद रखकर सरकार के पक्ष में झुक जाते हैं और न्याय की देवी का अपमान करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर विराजमान चंद्रचूड़ ने क्या किया? उन्होंने न्याय की देवी की आंखों से पट्टी हटा दी और महाराष्ट्र के मामले में कोई पैâसला दिए बिना ऐसी भूमिका अपनाई कि भाजपा सहित दलबदल कानून तोड़कर सरकार बनानेवालों को मदद मिले। महाराष्ट्र में संविधान का उल्लंघन करके सामूहिक दलबदल हुआ। इन लोगों ने एक अवैध सरकार बनाई और तीन साल तक चलाया, यह न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ जैसे लोगों की चुप्पी और समर्थन के कारण ही संभव हुआ। जो लोग असंवैधानिक कार्यों का समर्थन करते हैं, उनसे न्याय की क्या उम्मीद की जाए? सभी एक जैसे हैं, चाहे वह वर्मा हों या चंद्रचूड़। सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश के वकील बेटे ने इसी दौरान लंदन में ३०० करोड़ रुपए का ‘विला’ खरीदा, यह खबर जोरों से पैफैली। असली या नकली यह न्याय की देवी या रामशास्त्री बाणे जैसे न्यायाधीश ही जानें। यह हमारी न्याय व्यवस्था की स्थिति है। अब न्यायालयों में न्याय नहीं मिलता, बल्कि सौदेबाजी होती है, यह कई न्यायाधीशों ने सेवानिवृत्ति के बाद खुलकर कहा है। राम मंदिर का फैसला देने पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद राज्यसभा में नामित किया गया। यह सरकार की बेशर्मी है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश वेंकट रमय्या ने १९८९ में अपनी सेवानिवृत्ति के समय कहा था कि देश के हर उच्च न्यायालय में कम से कम पांच से छह न्यायाधीश ऐसे होते थे, जो रोज शाम को किसी बड़े वकील के साथ या विदेशी दूतावास में खाना खाने व शराब पीने जाते थे। ऐसे न्यायाधीशों की कुल संख्या ९० के आसपास थी और देश के २५ उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के
रिश्तेदारों और मित्र परिवार
की आर्थिक स्थिति तेजी से बढ़ते दिख रही थी। वेंकट रमय्या के बयान को ३५ साल हो चुके हैं। न्यायालयों में राजनीतिक और धार्मिक रंग की दीवारें खड़ी हो गई हैं। जाति, धर्म और आर्थिक स्थिति के आधार पर फैसले किए जाते हैं। देश के न्यायाधीश खुलेआम धार्मिक सम्मेलनों और मंचों पर जाकर भाषण देते हैं और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। न्यायाधीश मस्जिदों की खुदाई करके मंदिरों की तलाश करने की अनुमति देते हैं और इससे होनेवाले दंगों की जिम्मेदारी नहीं लेते। कोई जज कहता है कि किसी महिला के शरीर पर जबरदस्ती हाथ लगाना या उसके कपड़े का ‘नाड़ा’ खोलना बलात्कार नहीं है और ऐसे न्यायाधीश आज भी अपनी कुर्सी पर बने हुए हैं। न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार है ही, अब सिफारिश और राजनीति भी घुस गई है। लाखों मामले लंबित हैं। आम आदमी को न्याय मिलने के दरवाजे बंद हो गए हैं। ‘न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा’ हर न्यायालय में मौजूद हैं और उन्हें राजनीतिक संरक्षण का कवच कुंडल प्राप्त है। हिंदुस्थानी न्याय व्यवस्था को विरासत में एक महान परंपरा मिली थी। उस परंपरा का पतन हो गया है। नैतिक पतन हमारे देश तेजी से हो रहा है। राजनीतिज्ञों ने अगर जनता का विश्वास खो दिया तो अगले चुनाव में जनता उन्हें बदल सकती है, लेकिन न्यायाधीशों पर से विश्वास उठ जाए तो भी उसे सहना ही पड़ता है। इंग्लैंड के पूर्व न्याय मंत्री लॉर्ड हेलशॉम के शब्दों में कहें तो भ्रष्टाचार, बेईमानी और धोखाधड़ी जैसे गैरप्रकार को न्यायालयों में जितनी छूट मिलती है, उतनी कहीं और नहीं मिलती। न्यायमूर्ति वर्मा मामले में मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने तीन सदस्यीय जांच समिति गठित की है। समिति की रिपोर्ट आने के बाद न्यायमूर्ति वर्मा के बारे में निर्णय लिया जाएगा। जब किसी राजनीतिज्ञ का मामला इन्हीं न्यायाधीशों के सामने आता है तो यही न्यायमंडल राजनीतिज्ञों पर जरूरत से ज्यादा तीखे व्यंग्य कसते हैं। लेकिन जब खुद पर आया कि सब कितना शांत और ठंडा हो गए और फिर बाद में यही लोग प्रवचन देने के लिए मुक्त हो जाते हैं। देश की न्याय व्यवस्था दूषित हो चुकी है। देश का पर्यावरण बिगड़ चुका है।

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