प्रमोद भार्गव
अधिकारों का दुरुपयोग
सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपालों के अधिकारों और समय-सीमा में काम करने के परिप्रेक्ष्य में अहम् फैसला सुनाया है। न्यायालय ने विधेयकों को मंजूरी देने के सिलसिले में राज्यपाल की शक्तियां निर्धारित कर दी हैं। शीर्ष न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चित काल के लिए लटकाए नहीं रख सकते हैं। विधानसभा से पारित होकर आए विधेयकों पर समय-सीमा में निर्णय लेना होगा। अब निर्णय लेने के लिए एक से लेकर तीन महीने की समय-सीमा तय करते हुए अदालत ने राज्यपालों को नसीहत दी है कि उन्हें राजनीतिक विचारों से निर्देशित होने की जरूरत नहीं है। उन्हें कार्यपालिका को सुचारु बनाना चाहिए न कि ठप बनाए रखने का उपाय करना चाहिए? उन्हें उत्प्रेरक होना चाहिए न कि अवरोधक? यह फैसला तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने राज्यपाल आरएन रवि की ओर से राज्य विधानसभा में पारित विधेयकों पर स्वीकृति रोककर रखने के बाबत सुनाया है। राज्यपाल ने दस विधेयकों को लंबे समय से रोक रखा था। अब इन विधेयकों को अदालत ने उसी तिथि से मान्य करने का आदेश दिया है, जब इन्हें पुन: राज्यपाल को स्वीकृति के लिए भेजा गया था। इनमें से ज्यादातर विधेयक जनवरी २०२० से अप्रैल २०२३ के बीच पारित हुए थे। तय है, शीर्ष न्यायालय ने राज्य विधायिका के विधायी अधिकारों की पुष्टि कर दी है। भविष्य में अब राज्यपाल विधेयकों को दबाकर नहीं रख पाएंगे। उन्हें राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करना होगा। इस नाते यह ऐसा ऐतिहासिक पैâसला है, जो राज्यपालों को संवैधानिक गरिमा बनाए रखने के लिए बाध्य करेगा।
राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति और उनके पूर्वाग्रहों से प्रभावित कार्यप्रणाली के चलते इस संवैधानिक पद की गरिमा और औचित्य पर सवाल उठते रहे हैं। ऐसे विवादित मामलों में ज्यादातर विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्तियों से जुड़े होते हैं। याद रहे कुछ साल पहले बिहार में राज्यपाल रहे व्यक्ति पर विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की रिश्वत लेकर नियुक्तियां किए जाने संबंधी मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा था। इस सिलसिले में न्यायालय ने पाया था कि राज्यपाल ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए पक्षपात किया है। यह बेहद गंभीर स्थिति है, क्योंकि कुलपतियों की नियुक्ति का राज्यपालों को सीधा अधिकार है। ऐसे ही अधिकार लोकायुक्तों की नियुक्ति के परिप्रेक्ष्य में मिले हुए हैं। गुजरात में राज्यपाल डॉ. कमला बेनीवाल द्वारा न्यायमूर्ति आरए मेहता की लोकायुक्त पद पर की गई नियुक्ति चर्चा और विवाद का विषय रही थी। आखिर में मेहता को इस्तीफा देना पड़ा था। अब तो गुजरात सरकार में कानून में संशोधन कर राज्यपाल से लोकायुक्त की नियुक्ति के अधिकार ही छीन लिए हैं। जाहिर है, यह पद निर्विवाद कभी नहीं रहा।
सफेद हाथी
दरअसल, संविधान में परंपरा को आधार माने जाने के विकल्पों के चलते ही राज्यपाल का पद अस्तित्व में है। अंग्रेजी राज में वायसराय की जो भूमिका थी, कमोबेस उसे ही राज्यपाल के पद में रूपांतरित किया गया है। वायसराय जिन राजभवनों में रहते थे, उन्हीं आलीशान भवनों में हमारे लोकतंत्र के राज्यपाल रह रहे हैं। इनके राजसी वैभव और ठाट-बाट को बनाए रखने पर करोड़ों-अरबों का खर्च रोटी को तरसती वह ६७ फीसदी आबादी भोग रही है, जिसके लिए केंद्र सरकार खाद्य सुरक्षा नि:शुल्क करती है। देश के ८१ करोड़ लोगों को मुफ्त राशन केंद्र सरकार देती है। तय है, देश की आर्थिक बदहाली के मद्देनजर राज्यपाल का पद आर्थिक ढांचे पर बड़ा बोझ है। जबकि बदलते परिदृश्य में इस पद की व्यावहारिकता की समीक्षा नए सिरे से किए जाने की जरूरत हैं? राज्यपाल को विपक्षी दल सफेद हाथी करार जरूर देते हैं, लेकिन कांग्रेस नेतृत्ववाली यूपीए सरकार में भी इस पद पर नए सिरे से विचार नहीं किया गया। इसके उलट राजनीतिक दल यह सलाह देते हैं कि यदि संस्थाएं हमारे पूर्वजों और संविधान निर्माताओं ने बनाई हैं और इस परिपाटी को जारी रखना जरूरी है तो राज्यपाल की नियुक्ति के क्रम में १९८८ में गठित सरकारिया आयोग की उन सिफारिशों को अमल में लाया जाए, जिनमें मुख्यमंत्री की सलाह से राज्यपाल की नियुक्ति का प्रावधान है। इस आयोग का गठन नियुक्ति में पारदर्शिता लाने की दृष्टि से राजीव गांधी सरकार ने किया था। इसी परिप्रेक्ष्य में २००१ में अंतर्राज्यीय परिषद द्वारा बुलाई गई बैठक में सहमति बनी थी कि यह पद संवैधानिक गरिमा के अनुकूल बना रहने के साथ राजनीति दुराग्रह से भी निष्प्रभावी रहे, इस हेतु राज्यपाल की नियुक्ति अनिवार्य रूप से प्रदेश के मुख्यमंत्री से जरूरी और पर्याप्त सलाह के बाद ही की जाए? परिषद ने यह सलाह भी दी थी कि एक तो राजनीति से जुड़े व्यक्तियों को राज्यपाल न बनाया जाए, दूसरे जो राज्यपाल सेवा मुक्त हो जाएं उन्हें राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में हिस्सा लेने के अलावा अन्य कोई चुनाव लड़ने अथवा प्रत्यक्ष राजनीतिक गतिविधि में भागीदारी से प्रतिबंधित किया जाए। किंतु बैठक में ‘राजनीतिक गतिविधि’ की व्याख्या स्पष्ट नहीं की जा सकी और इस बहाने परिषद की सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। इस बाबत डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेदों की इबारत कितने ही अच्छे रूप में लिखी जाए, यदि उसे लागू करने वाले अच्छे नहीं हैं तो वे इस इबारत का अपनी इच्छा के अनुसार अर्थ निकाल लेंगे।
दरअसल, आंबेडकर ने इस परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को नैतिक रूप से मजबूत होने की अपेक्षा की थी। आज देश में नैतिकता और ईमानदारी कदाचार में बदले दिखाई दे रहे हैं।
औचित्य पर सवाल
दरअसल, धर्मनिरपेक्ष देश होने के कारण हमारे यहां धर्म आधारित अनेक संगठन प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर से राजनीति, धर्म और सार्वजनिक जीवन में समान रूप से क्रियाशील हैं। अर्थात कई संगठन ऐसे हैं, जो ‘राजनीति में हैं भी और नहीं भी’ की स्थिति में हैं। जैसे भाजपा से जुड़े संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद। इसी तर्ज पर मुस्लिम लीग से जुड़े सिमी और जमात ए इस्लामी हैं। सपा भी अपना राजनीतिक वजूद और मुस्लिम वोटबैंक पुख्ता बनाए रखने के नजरिए से इस्लामिक संस्थाओं का सहयोग ले रही है। ये तमाम संगठन ऐसे हैं, जो खुद को राजनीतिक संगठन तो नहीं मानते, किंतु अप्रत्यक्ष तौर से राजनीतिक गतिविधियों में लगातार सक्रिय रहते हैं। कांग्रेस भी मुसलमानों से जुड़े धार्मिक संगठनों का पक्ष लेते हुए उन्हें वोटबैंक की दृष्टि से अपने हित में साधने का काम करती है। कांग्रेस की कर्नाटक राज्य सरकार ने इसी तुष्टीकरण के चलते संविधान के विरुद्ध सरकारी कामों में मुस्लिम ठेकेदारों को चार प्रतिशत आरक्षण दिया है।
असल में हमारे देश में जिस तरह की राजनीतिक संस्कृति बनाम विकृति पिछले ढाई-तीन दशक में पनपी है, उसमें संविधान में दर्ज स्वायत्तता का परंपरा के बहाने दुरुपयोग ज्यादा हुआ है। न्यायालय और वैâग जैसी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर भी जानबूझकर आक्रामक प्रहार किए गए। ऐसे में राज्यपाल तो सीधे राजनीतिक हित साधने के लिए केंद्रीय सत्ता द्वारा की गई नियुक्ति है इसलिए राज्यपाल को प्रतिपक्ष संदेह की दृष्टि से देखता है। अक्सर इस पद को हाशिए पर पड़े उम्रदराज नेताओं अथवा सेवानिवृत नौकरशाहों से नवाजा जाता है। इन उपकृत राज्यपालों को जहां केंद्र अपना चाकर मानकर चलता है, वहीं ऐसे राज्यपाल भी स्वयं को नियोक्ता सरकार का नुमाइंदा समझने लग जाते हैं। लिहाजा, पद की गरिमा के उल्लंघन में वे न तो शर्म का अनुभव करते हैं और न ही उन्हें संविधान की मूल भावना के आहत होने की अनुभूति होती है। हकीकत में वे केंद्र के अहसान का बदला चुका रहे होते हैं। पद की अवमानना और इसके औचित्य पर ऐसे ही कारण सवाल खड़े करते हैं?
राज्यपाल की हैसियत और संवैधानिक दायित्व की व्याख्या करते हुए उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायमूर्तियों की खंडपीठ ने ४ मई १९७९ को दिए पैâसले में कहा था कि ‘यह ठीक है कि राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति करते हैं। जिसका अर्थ हुआ कि उपरोक्त नियुक्ति वास्तव में भारत सरकार द्वारा की गई है, लेकिन नियुक्ति एक प्रक्रिया है इसलिए इसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि राज्यपाल भारत सरकार का कर्मचारी या नौकर है। राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त हर व्यक्ति भारत सरकार का कर्मचारी नहीं होता। यही स्थिति राज्यपाल के पद पर लागू होती है।
इसके बावजूद ज्यादातर राज्यपाल संविधान की बजाए नियोक्ता सरकार के प्रति ही उत्तरदायी बने दिखाई देते हैं। यही वजह है कि गाहे-बगाहे वे राज्य-सरकारों के लिए परेशानी का सबब भी बन जाते हैं इसलिए इस संस्था को गैर जरूरी करार दे दिया जाता है और इसके स्थान पर उच्च न्यायालय अथवा प्रमुख सचिवों को राज्यपाल के जो गिने-चुने दायित्व हैं, उन्हें सौंपने की बात उठती रहती है। दरअसल, राज्यपाल का प्रमुख कर्तव्य केंद्र सरकार को आधिकारिक सूचनाएं देना है। लेकिन राज्यपाल तार्किक सूचनाएं देने की बजाए, केंदीय सत्ता की मंशा के अनुरूप राज्य की व्यवस्था में दखल देने लग गए हैं। इस वजह से राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों के बीच टकराव के हालात पैदा हो रहे हैं। यह स्थिति उन राज्यों में ज्यादा टकराव के हालात पैदा कर रही है, जहां गैर-भाजपा सरकारें काबिज हैं। दरअसल, संविधान की मूल भावना में निहित है कि संघ और केंद्र के बीच एकात्मता बनी रहे। किंतु राज्यपाल इस भावना के अनुपालन में खरे नहीं उतरे। वे केंद्र के हित साधक की भूमिका में आ जाते है। इस वजह से राज्यपाल के पद के औचित्य पर सवाल उठते हैं और इस व्यवस्था को आर्थिक बोझ व गैर जरूरी माना जाने लगा है। अर्थात इस पद की जरूरत के औचित्य की तलाश वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में खोजने की जरूरत है।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)