दोस्ती के भी कुछ उसूल होते हैं
केवल एक-दूसरे के करीब हो जाना
दोस्ती नहीं कहलाता है।
एक-दूसरे की भावना को समझना उसे
समझकर, संभलकर ही
अपनी वाणी में रस घोलना,
तत्पश्चात दोस्त संग बोलना,
ना कि उस पर अपनी मर्जी थोपना
खुद को तीस मार खान जान,
अपनी ही चलाते रहना,
ये रवैया दोस्ती नहीं कहला सकता है
दोस्ती इतनी भी सस्ती नहीं है
बड़ी मुश्किल से दोस्त मिलते/बनते हैं
और उतनी ही सावधानी से दोस्ती निभाई जा सकती है।
वर्ना एक ठेस…और दोस्ती चकनाचूर!
दोस्ती की उम्र तब लंबी हो सकेगी
जबकि दोनों की विचारधारा, कार्यप्रणाली और दोनों के स्वभाव अनुसार उनकी सोच मेल खाती हो।
यदि नहीं, तो दिलों का मिलना तो बहुत दूर की बात है।
संबंधों की कमजोर नींव पर
रिश्तों की इमारत ज्यादा दिन टिक नहीं पाती है।
“गोया, मंजिल तो करीब थी, दोष हमारा ही था…
चार कदम भी हम साथ-साथ चल नहीं पाए।”
आरोप-प्रतियारोप की झड़ी शुरू हो गई
पहले जिस्मानी दूरी हुई…अब दिलों का फासला बढ़ गया।
इल्जाम दोस्तों पर लगना था, अलबत्ता
“दोस्ती बदनाम हो गई!”
-त्रिलोचन सिंह अरोरा