शब्दांकन – राजन पारकर
रामराज्य ! कितना मधुर शब्द ! जैसे पुरानी गाय की शुद्ध घी से बना पेड़ा–मीठा, सात्विक और पवित्र ! त्रेतायुग में जब श्रीराम ने राज किया, तब न्याय, शांति और प्रजा का कल्याण ही शासन का उद्देश्य था। न कोई भ्रष्टाचार, न कोई झूठ और न कोई जुमला !
लेकिन समय बदला, युग बदले और फिर आया 2014 । और जनता को बताया गया, `अच्छे दिन आने वाले हैं !’ कुछ ही महीनों में ऐसा लगा कि दिल्ली की गद्दी पर त्रेतायुग का ही कोई अवतार बैठा है–बस धनुष-बाण की जगह ट्विटर-भाषण और वायदे-बाण चल रहे थे।
अब इस रामराज्य में न सीता हैं, न लक्ष्मण–बस `इलेक्शन धनुष’ और `नारेबाजी के बाण’ हैं। सीता की अग्नि परीक्षा अब आम जनता देती है–महंगाई, बेरोजगारी, गैस सिलेंडर और राशन की कतारों में खड़े होकर।
त्रेता में राम ने शबरी के झूठे बेर खाए थे, लेकिन आज के रामराज्य में गरीब की थाली ही गायब है। एक तरफ थाली की कीमतें बढ़ती हैं, दूसरी ओर लोगों को थाली बजाने को कहा जाता है–ये कौन-सा रामराज्य है, ये समझना थोड़ा मुश्किल है।
वो रावण तो लंका में रहता था, जिसे श्रीराम ने बाणों से मार गिराया था। लेकिन अब के रावण व्हॉट्सऐप पर रहते हैं। हर ग्रुप में एक नया रावण, हर न्यूज चैनल पर एक नया मारीच ! उनके दस सिर नहीं, लेकिन दस झूठी खबरें रोज वायरल होती हैं !
त्रेतायुग में राजा, प्रजा के लिए होता था। अब लगता है प्रजा, राजा के प्रचार के लिए है। सवाल पूछने वाला देशद्रोही कहलाता है और चुप रहने वाला `सच्चा भक्त’!
न्याय? वो भी VIP के लिए फास्ट ट्रैक पर है। धर्म ? अब वो राजनीति की रसोई में तड़का बन गया है। समता ? वो तो बस भाषणों में और चुनावी पोस्टरों पर रह गई है।
आखिर में, बस इतना ही कहा जा सकता है—
-`यह रामराज्य है या रामलीला का रंगमंच? जनता देख रही है, हंस रही है, कभी रो रही है…और अंत में, मजबूरी में फिर से अगले चुनाव के लिए तालियां बजा रही है!’