रवींद्र मिश्रा
अगर इंसान में कुछ करने की कूवत है तो उसे उसकी मंजिल अवश्य मिलती है। भले उसे उस मंजिल तक पहुंचने में बरसों ही क्यों न लग जाए। कुछ ऐसा ही वरली के बीडीडी चाल में रहनेवाले सुरेंद्र गणपत सावंत ने कर दिखाया है। सुरेंद्र सावंत के पिता मुंबई पुलिस में काम करते थे और जब उनकी पोस्टिंग आजाद मैदान में हुई तो उस समय सुरेंद्र सावंत साढ़े ९ वर्ष के थे। हर पिता की तरह उनके पिता का भी सपना था कि उनका बेटा पढ़-लिखकर पुलिस इंस्पेक्टर बने, लेकिन नियति को यह मंजूर नहीं था। एक दिन पिता गणपत सावंत की अचानक मौत से परिवार पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा क्योंकि परिवार चलाने वाला ही चला गया। पिता की मौत के साथ ही उनका सपना भी उनके साथ ही चला गया। सात भाई तथा एक बहन वाले सुरेंद्र ने मनपा स्कूल से १०वीं की पढ़ाई किसी तरह पूरी की। सुरेंद्र बताते हैं कि मैं अच्छे कॉलेज में पढ़ना चाहता था, लेकिन एडमिशन न मिलने के कारण १२वीं की पढ़ाई नाइट स्कूल से करनी पड़ी। घर की परिस्थिति ठीक नहीं थी इसलिए मैंने लॉटरी बेचने का काम शुरू किया। सुबह लॉटरी बेचता और शाम को कटलरी का धंधा लगाता था। समय बीत रहा था। बड़े भाई की नौकरी पुलिस में लग गई और परिवार दादर आ गया। उस समय बड़े भाई दादर पुलिस स्टेशन में कार्यरत थे। भाई पढ़ाई के लिए कहते, लेकिन घर की परिस्थितियों को देखते हुए मैं पढ़ाई नहीं करना चाहता था। मेरे मन में हमेशा ये बात रहती कि मैं भी कुछ करूं, ताकि परिवार की मदद हो सके। मैं फुटपाथ पर सीजनल धंधा करने लगा। दीपावली में पटाखे बेचता, रक्षाबंधन के समय राखी बेचता। फुटपाथ पर धंधा करते समय अक्सर परेशानियों का सामना करना पड़ता, क्योंकि मनपा की गाड़ी आते ही अपना सामान उठाकर इधर-उधर भागना पड़ता था। यही हाल होता था, जब पुलिस की गाड़ी आती थी। दो-चार साल इधर-उधर भटकता रहा। कुछ दिनों बाद दूसरा भाई भी पुलिस में भर्ती हो गया। अब घर की परिस्थिति धीरे-धीरे ठीक होने लगी। बड़े भाई का तबादला नामदेव जोशी मार्ग पुलिस स्टेशन में हो गया और भाई ने मुझे वहां बुला लिया। मैं भाई के साथ रहने लगा। कुछ दिनों बाद हमारे एक रिश्तेदार ने हमें ओबेरॉय होटल में काम पर रखवाया। वहां कुछ दिनों तक काम करने के बाद मुझे जीआईसी में चपरासी की नौकरी मिली। धीरे-धीरे पदोन्नति होती रही और आज मेरी पोस्ट डिप्टी मैनेजर की है। यहां तक पहुंचने में मुझे २५ से भी अधिक वर्षों का सफर तय करना पड़ा। अपनी मेहनत की कमाई से मैंने नालासोपारा में खुद का मकान खरीदा और बड़ी बेटी की शादी कर दी। आज मैं नाना बन गया हूं। छोटी बेटी पढ़-लिखकर स्कूल टीचर बन गई है। आज मैं अपने परिवार के साथ खुश हूं। समाजसेवा के साथ ही अपने रिश्तेदारों के यहां आना-जाना और उनके सुख-दुख में शामिल होना मुझे अच्छा लगता है।