अशोक तिवारी
कहते हैं कि जिंदगी में अगर जीने की दृढ़ इच्छा और सपनों को पूरा करने की प्रबल इच्छाशक्ति हो तो दिव्यांग व्यक्ति भी जीवन में वो मुकाम हासिल कर सकता है, जिसे हासिल करने के लिए सामान्य व्यक्ति को नाकों चने चबाने पड़ते हैं। महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के पन्हालागढ़ तालुका के बुधवार पेठ नामक गांव के रहनेवाले विक्रांत मोहन पांढरे की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। विक्रांत के दादा चतुर पांढरे १९३५ में कोल्हापुर से मुंबई रोजी-रोटी की तलाश में आए थे। दादा छोटी-मोटी कंपनियों में मजदूरी कर परिवार का भरण-पोषण करते थे। विक्रांत के पिता मोहन पांढरे वडाला में पानी का मोटर बनानेवाली कंपनी में मैकेनिक के पद पर काम करते थे। वर्ष १९८६ में जब विक्रांत मात्र ६ वर्ष के थे, तभी कमानी के नाज होटल के पास एक ट्रक ने उन्हें टक्कर मार दी, जिसमें उनका एक पैर बुरी तरह से कुचल गया। इलाज के लिए विक्रांत ६ महीने तक घाटकोपर के राजावाड़ी और डेढ़ साल तक सायन अस्पताल में एडमिट रहे। दो वर्षों तक विक्रांत के अस्पताल में एडमिट रहने के दौरान उनके पिता काम पर नहीं जा सके इसलिए कंपनी ने उन्हें नौकरी से निकाल दिया। इलाज के लिए आर्थिक रूप से मजबूर विक्रांत के परिवार पर एक और मुसीबत टूट गई। विक्रांत के पिता मजबूरी में कभी मछली तो कभी सब्जी बेचकर परिवार का गुजारा करने लगे, लेकिन इससे होनेवाली आय पर्याप्त न थी क्योंकि विक्रांत के परिवार में दो भाई और तीन बहनें थीं। बहरहाल, दो वर्ष बाद ईश्वर की कृपा से विक्रांत ठीक हुए लेकिन एक पैर से जिंदगीभर के लिए दिव्यांग हो गए। परिवार की माली हालत देखकर ८ वर्ष की उम्र में विक्रांत कमानी स्थित कार्यशाला में गणपति की मूर्तियां बनाने का काम सीखने लगे। वर्ष १९९८ में मात्र २० वर्ष की उम्र में विक्रांत ने गणपति की मूर्तियां बनाने का अपना कारखाना खोल लिया। इसके बाद विक्रांत ने अपनी तीनों बहनों के विवाहोपरांत ३५ वर्ष की उम्र में अपनी शादी की। वर्ष २०२० में कोरोना काल के दौरान कुर्ला के बैल बाजार में विक्रांत की पत्नी रेखा को कुर्ला एल वॉर्ड ने आनंदीबाई प्रसूति गृह अस्पताल में आया की नौकरी पर रखा। १० महीने तक रेखा पांढरे ने बिना एक भी छुट्टी लिए नौकरी की। मार्च २०२१ में ऑन ड्यूटी रेखा अस्पताल के कुछ कागजातों का जेरोक्स लेने बाहर निकलीं तभी एक डंपर ने उन्हें टक्कर मार दी। दुर्घटना में रेखा की रीढ़ की हड्डी टूट गई, जिसकी वजह से उन्हें ६ महीने अस्पताल और एक वर्ष बिस्तर पर पड़े रहना पड़ा। इसके बाद रेखा ठीक तो हो गर्इं, लेकिन उनके शरीर में ४० प्रतिशत शारीरिक दिव्यांगता आ गई। विक्रांत अपनी पत्नी की नौकरी के लिए मनपा के वरिष्ठ अधिकारियों से दो वर्षों से गुहार लगा रहे हैं लेकिन मनपा के अधिकारी उनकी बात को अनसुना कर रहे हैं। इतना ही नहीं, ऑन ड्यूटी एक्सीडेंट होने के बावजूद रेखा को कोई अभी तक कोई मुआवजा नहीं दिया गया। विक्रांत का सपना है कि उनका इकलौता बेटा, जो अभी छठी कक्षा का छात्र है, पढ़-लिखकर उच्च पद पर आसीन हो।