अनिल मिश्र
कहते हैं कि किसी भी सफल व्यक्ति के पीछे किसी न किसी व्यक्ति का हाथ जरूर होता है। नानक मंगलानी भी उन्हीं व्यक्तियों में से एक हैं, जिन्होंने अपने जीवन में कठिन मेहनत कर सफलता का स्वाद चखा है और आज वो एक सम्मानित व्यक्ति हैं। अपने परिवार के साथ ही अपने भाइयों के परिवार को सफल बनानेवाले नानक मंगलानी की सफलता के पीछे एक स्वयंसेवक का हाथ है।
नानक मंगलानी ने बताया कि जब वो ढाई वर्ष के थे, तब उनका परिवार हिंदुस्थान-पाकिस्तान बंटवारे के बाद मुंबई स्थित मालाड में रहने को आ गया। उसके बाद कोल्हापुर और फिर गांधीनगर रहे, जहां उन्हें सरकार की तरफ से दो रूम दिए गए थे। परिवार सहित वे अपने भतीजे की शादी में उल्हासनगर आए और १९५८ में गांधीधाम का मकान ऐसे ही छोड़कर उल्हासनगर के ही हो गए। पिताजी संत प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। पिता कड़िबा नामक नमकीन खाद्य पदार्थ और मां दाल पकवान बनाती थीं, जिसे सड़क पर वो दो पैसे में बेचते थे। इतना ही नहीं, विद्यालय से आकर कोल्हापुर बस स्टैंड पर खड़ी बसों में वे चॉकलेट और कंघी बेचते थे। उल्हासनगर आने के बाद एक पंसारी के यहां नौकरी करने लगे। तेरह साल की उम्र में एक चाय की दुकान पर चाय देने और गिलास धोने का काम भी उन्होंने किया। अब वो दो पैसे में अगरबत्ती बनाने के साथ ही प्लास्टिक की पैâक्टरी में काम करने लगे, जहां पंद्रह रुपए वेतन उन्हें मिलता था। कंपनी में वो महिलाओं के लिए प्लास्टिक की हेयर पिन बनाते थे। भिवंडी से उल्हासनगर नौकरी करने के लिए एक साड़ी गोडाउन में आते-जाते थे। इतना ही नहीं, मुंबई में क्लर्क का काम भी उन्होंने किया। प्रभात सिनेमा के पास एक अस्पताल में उन्होंने मैनेजर का भी काम किया। मुंबई के लोहार चाल से एक दिन सुरेश भाई व असरानी उल्हासनगर घूमने आए। उनके काम को देखकर उन्होंने मंगलानी को मुंबई बुलाया। काम टूरिस्ट यानी विदेशों का दौरा करनेवालों को सुविधा देने का था, जहां पांच सौ रुपए उन्हें वेतन मिलता था। मंगलानी को ६ लड़की व दो लड़के थे। परिवार की जिम्मेदारी के कारण जहां उन्हें अधिक पगार मिलता वो वहां काम पर लग जाते। उल्हासनगर से मुंबई वायर ले जाकर सप्लाई करते थे। १९८२ में उन्होंने पार्टनरशिप में दुकान खोली। कुछ दिनों तक सबकुछ ठीक चला चला, लेकिन कुछ विवाद के कारण उन्होंने पार्टनरशिप छोड़ दी और उल्हासनगर में एक दुकान खोलकर वायर का व्यवसाय शुरू कर दिया। इतना कुछ करने के बाद भी मंगलानी ने अपना काम नहीं रोका और उन्होंने ‘सिंधु सपूत’ नामक पेपर निकाला, जिसे १९ वर्षों तक चलाने के बाद बंद कर दिया। उनके दोनों लड़के पैकेजिंग बॉक्स बनाते हैं। छोटे भाई को पढ़ाने के साथ ही डीएड करवाकर उसे मास्टर की नौकरी दिलवाई। मंगलानी कहते हैं कि पूरा जीवन संघर्ष, भाई-बहन, बेटे-बेटियों के लिए काम करते बीत गया। अब बच्चों के सफल व्यवसाय के कारण सुकून मिल रहा है। उम्र के उतार पर अब वे सिंधु यूथ सर्कल में नि:शुल्क सेवा दे रहे हैं।