राजन पारकर / मुंबई
अब तो ऐसा लगता है कि सरकार आम आदमी की रसोई में झांक-झांक कर तय कर रही है कि उसकी थाली में क्या होगा और क्या नहीं। मटन तो पहले ही राजा-महाराजाओं की दावतों तक सीमित कर दिया गया, अब दूध भी अमीरों की बपौती बनने जा रहा है! शनिवार से दूध के दाम में पूरे दो रुपए प्रति लीटर की बढ़ोतरी कर दी गई और कारण वही सदाबहार-“गर्मी बढ़ गई, दूध घट गया, मांग आसमान पर चली गई!”
अब बताइए कि यह कौन-सी नई बात हुई? हर साल गर्मी आती है, हर साल दूध की मांग बढ़ती है, लेकिन इसका इलाज यही है कि जनता की जेब काट दी जाए? पुणे के कात्रज दूध संघ में दूध उत्पादक और प्रोसेसिंग व्यवसायियों की एक बैठक हुई, जिसमें ४७ विद्वानों ने माथापच्ची की और आखिरकार इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि दूध महंगा किए बिना उनकी सेहत ठीक नहीं रह सकती। परिणामस्वरूप, गाय और भैंस के दूध के दाम में दो-दो रुपए की वृद्धि कर दी गई।
लेकिन मसला सिर्फ दूध की कीमतों का नहीं है। बैठक में दूध और पनीर में होने वाली मिलावट पर भी लंबी-चौड़ी चर्चा हुई। हालांकि, चर्चा का नतीजा वही निकला, जो अक्सर निकलता है-“हम देखेंगे, हम सोचेंगे, हम विचार करेंगे।” जब तक विचारधारा के शेर अपनी कुर्सियों पर बैठे-बैठे विचार करते रहेंगे, तब तक जनता के गिलास में दूध कम और पानी ज्यादा ही रहेगा।
संघ के अध्यक्ष गोपालराव मस्के और मानद सचिव प्रकाश कुतवल ने घोषणा की कि वे जल्द ही दुग्ध विकास मंत्री और आयुक्त से मुलाकात करेंगे, ताकि किसानों का थका हुआ अनुदान जल्द से जल्द मिल सके। लेकिन इस मुलाकात से जनता को क्या फायदा? जब तक सरकारी बाबू फाइलों में पन्ने पलटते रहेंगे, तब तक गरीब आदमी की चाय में दूध कम और उबाल ज्यादा आता रहेगा!
गौर कीजिए, दूध सिर्फ बच्चों की सेहत से जुड़ा मसला नहीं है। यह देश की उस करोड़ों मेहनतकश जनता का भी हिस्सा है, जो दिनभर हाड़तोड़ मेहनत के बाद घर लौटकर एक कप चाय में सुकून ढूंढती है। लेकिन अब सरकार की नीतियों से यह सुकून भी खतरे में है।
पहले ही दाल-चावल के दाम आसमान पर हैं, पेट्रोल-डीजल की कीमतों ने आम आदमी की कमर तोड़ रखी है और अब दूध भी महंगा कर दिया गया। यह कैसी व्यवस्था है, जहां मॉल और बड़े उद्योगपतियों को तो सब्सिडी और रियायतें मिलती हैं, लेकिन आम जनता के हिस्से में सिर्फ महंगाई आती है?
और मजे की बात देखिए कि हर बार जब दाम बढ़ते हैं, तो तर्क दिया जाता है कि किसानों को सही कीमत मिलनी चाहिए। लेकिन क्या किसानों की हालत सच में सुधर रही है? दूध उत्पादकों को सही कीमत मिलने के बजाय बीच में ही बिचौलियों और बड़े व्यापारियों की जेबें भरती हैं। जब तक इस लूटखसोट पर लगाम नहीं लगेगी, तब तक किसान की दशा वैसी ही रहेगी और जनता की जेब कटती ही रहेगी।
अब सोचने वाली बात यह है कि आने वाले समय में क्या होगा? क्या हम वह दिन भी देखेंगे, जब दूध की कीमतें इतनी बढ़ जाएंगी कि यह सिर्फ होटलों और फाइव-स्टार रेस्तरां में ही मिलेगा? क्या आम आदमी को अपने बच्चों को दूध पिलाने से पहले सोचना पड़ेगा कि महीने के बजट में जगह बनेगी या नहीं?
सरकार से एक ही सवाल है कि आखिर इस महंगाई का अंत कहां होगा? क्या कोई ऐसा दिन भी आएगा, जब जनता को राहत की सांस मिलेगी? या फिर हर बार नए-नए बहाने गढ़कर आम आदमी की थाली से एक-एक करके सारी चीजें गायब कर दी जाएंगी? शायद अब वक्त आ गया है कि जनता सिर्फ महंगाई को झेलने के बजाय, इसके खिलाफ आवाज उठाए। वरना एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब हम सिर्फ यादों में ही कह पाएंगे कि “एक जमाना था, जब चाय में सच में दूध हुआ करता था!”