पवित्र दुबे
कुंभ आयोजन का प्रावधान कब से है, इस बारे में विद्वानों में अनेक भ्रांतियां हैं। वैदिक और पौराणिक काल में कुंभ तथा अर्धकुंभ स्नान में आज जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप नहीं था। कुछ विद्वान गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित होने की बात करते हैं, परंतु प्रमाणित तथ्य सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन ६१७-६४७ ई. के समय से प्राप्त होते हैं। बाद में श्रीमद आघ जगतगुरु शंकराचार्य तथा उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की।
महाकुंभ के संबंध में मान्यता
शास्त्रों में बताया गया है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है, इसलिए हर बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का आयोजन होता है। देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के १४४ वर्ष के बाद आता है। ऐसी मान्यता है कि १४४ वर्ष के बाद स्वर्ग में भी कुंभ का आयोजन होता है, इसलिए उस वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ का अयोजन होता है। महाकुंभ के लिए निर्धारित स्थान प्रयाग को माना गया है।
कुंभ में महत्वपूर्ण ग्रह
कुंभ के आयोजन में नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसलिए इन्हीं ग्रहों की विशेष स्थिति में कुंभ का आयोजन होता है। सागर मंथन से जब अमृत कलश प्राप्त हुआ, तब अमृत घट को लेकर देवताओं और असुरों में खींचातानी शुरू हो गयी। ऐसे में अमृत कलश से छलक कर अमृत की बूंद जहां पर गिरी, वहां पर कुंभ का आयोजन किया गया।
अमृत की खींचा तानी के समय चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया। गुरु ने कलश को छुपा कर रखा। सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की। इसलिए जब इन ग्रहों का संयोग एक राशि में होता है, तब कुंभ का अयोजन होता है। क्योंकि इन चार ग्रहों के सहयोग से अमृत की रक्षा हुई थी।
१२ वर्ष नहीं, हर तीसरे वर्ष लगता है कुंभ
गुरु एक राशि लगभग एक वर्ष रहता है। इस तरह बारह राशि में भ्रमण करते हुए उसे १२ वर्ष का समय लगता है। इसलिए हर बारह साल बाद फिर उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन होता है, लेकिन कुंभ के लिए निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीसरे वर्ष कुंभ का अयोजन होता है। कुंभ के लिए निर्धारित चारों स्थानों में प्रयाग के कुंभ का विशेष महत्व है। हर १४४ वर्ष बाद यहां महाकुंभ का आयोजन होता है।