हूक

पूर्ण चंद्र गगन पर विराज रहा
धरा पर चांदनी छा गई,
तारों की कांति मद्धम हुई
जुगनुओं की चमक बुझी-बुझी।
पवन का मिजाज उखड़ा हुआ
तपिश का एहसास अब तक बना हुआ।
मेरे लिए यह चांदनी रात है अनमनी
मेरी वेदना भरी यादों से सनी।
जीवन साथी का ले हाथों में हाथ
भ्रमण कर रहे थे साथ-साथ।
नारित्व को पूर्ण करने थी जा रही
कोख में अजन्मे शिशु को थी पाल रही।
हम पति-पत्नी के थे सपने अलग-अलग
बेटे की चाह थी उसकी
स्वस्थ अंश अपने की आस मेरी।
पहला वैचारिक विवाद था यही हुआ
मैंने भी कोई समझौता नहीं किया।
मानसिक आघात झेल न सकी और
फिर कभी मां बन न सकी।
क्रंदन करता था मन मेरा
एसे जीवन जीने में क्या धरा।
हर बंधन से उन्मुक्त हुई
जीवन के चौराहे पर जा खड़ी
मूक-बधिर बच्चों में रहती हूं घिरी।
एक हूक जो दबी-दबी, मेरे मन से निकली थी
बिसर नहीं पाई अब भी है कहीं चुभ रही।
आसमान में टकां छोटा सा एक सितारा
निहार रहीं हूं
पीछे छूटे पलों का हिसाब लगा रही हूं।
चांदनी रातें सीलन भरी लगती मुझे
कोई आकर्षण उसमें अब नहीं दिखता मुझे।
-बेला विरदी

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