गृहणी

नींव ही जिसकी धंस गई, ख्वाहिशों के मुकाम पर
लौट आई है वो फिर वहीं, काम से एक नए काम पर
लकड़ी वो जैसे अंधों की, सुव्यवस्थित कार्य प्रबंधों की
जनमानस में है वो जी रही, मधुर प्रगाढ़ संबंधों सी
खोई है ख्यालों में, उलझे-उलझे सवालों में
उलझे लटें समेट लूं या थोपूं खुद को निवालों में
कर्तव्यों के झुरमुट से, मन में न कोई शूल रही
अपनों की ही ख्वाहिश पर, खुद को ही वो भूल रही
नव सर्जन का द्योतक वो, नव पीढ़ी की जो सीढ़ी है
कर्जदार है जग सारा, घर-घर जो ये गृहणी है!
कर्तव्य पथ पर चलकर जिसने, उफ्फ! तक न इक बात कही
गृहणी है एक अनमोल रतन, ये शब्द कोई मजाक नहीं।
-विशाल चौरसिया (स.अ.)
आज़मगढ़,उत्तर प्रदेश

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