परिचय कैसे दूं

जग में जीने के लिए पहचान बनाता है इंसान
बिना पहचान के उसकी जान है अनजान
जहां भी जाऊं अपना परिचय दूं
बार-बार जाऊं हर बार अपना परिचय दूं
वो भूल जाते हैं मेरी पहचान
हो जाता है उल्टा परिणाम
छोटा सा कण हूं
पर सिमटा नहीं हूं
मेरा तिरस्कार न करना
बड़ा भारी हूं
अपनी पहचान बता के हार गया हूं
किसी को पता नहीं कितना थक गया हूं
कितनी बार दोहराऊं एक ही बात को
कितना बेबस हो गया हूं
संयम से काम लेता हूं
मुश्किल राहों से चलता हूं
बंजर जमीर से संघर्ष करता हूं
ठोकर खा के पत्थर का बन गया हूं
बिना अस्त्र-शस्त्र के चलता हूं
कामयाबी से नाता जोड़ता हूं
जिंदगी का शुक्रगुजार हूं
किसी के दिल का करार हूं
किसी का हम-दम साथी हूं
ख्याल तो मैं सबका रखता हूं
पर जताना जरूरी नहीं समझता
अपने अरमानों के पंख लगा के उड़ जाऊं
अपनी पहचान में सबसे आगे निकल जाऊं।
-अन्नपूर्णा कौल, नोएडा

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