जैसे जैसे उम्र बढ़ती गई
जैसे जैसे समझ समझदार हुई
चुप्पी ने आकर दामन थामा
भीतर का शोर शांत हुआ
बाहर के कोलाहल को विराम लगा।
कुछ भी नया अब नया लगे न
कौतूहल की बंद हुई दुकान
आंखें भी अब हो गईं शिक्षित
सच-झूठ, अच्छे-बुरे की
अब इन्हें है खूब पहचान।
न दुःख अब दस्तक सुनाए
न ही सुख मुस्कान बढ़ाए,
एक ही दिन हम लगन / मृत्यु पे जाएं
फिर भी ‘जिंदा इंसान’ कहलाए।
ये कैसी इंसान की फितरत?
जिंदा इंसान की कैसी हरकत?
क्या कोई रब का बंदा मेरी इस पुकार पे आए?
और आकर मुझे बस, मुर्दे की पहचान बताए।
-नैंसी कौर, नई दिल्ली