मैं मिट्टी हूं, जल मिलाकर
हाथों, पैरों से गूंधी हुई,
कुम्हार के चाक पर
लोंदा बन कर पड़ी हुई।
मुझे हुक्के का रूप दे दिया, तो
पेट में अग्नि रखूंगी
खुद जलूंगी औरों को भी जलाऊंगी।
बन गई गर सुराही
मदिरा से भर लूंगी उदर
स्वयं मस्ती में जिऊंगी
कर मतवाला, सबको कंगाल बना जाऊंगी।
बना दिया इसी मिट्टी से
मुझे एक मटका
अपने में भरे जल को कर दूंगी शीतल
सबको शीतल जल पिला
प्यास बुझा पाऊंगी।
मुझे दिया रूप हांडी का
अन्न घृत लवण से
हरदम उदर भरा होगा मेरा
भूख मिटेगी मेरी,
सबकी भूख मिटाऊंगी।
बन गई मैं एक छोटा सा दीपक
धारुगीं उदर में स्नेह और बाती
पल-पल जल कर
उजियारी करूंगी देहरी
पिया को राह दिखाऊंगी।
सौभाग्य से बन जाऊं चूल्हा
अपनी कोख से उपजे अन्न को
बना अमृत रक्त में मिल जाऊंगी।
मैं बेजान मिट्टी,
जैसा सृजन होगा मेरा
वैसी ही बन,
अपने कर्तव्य पथ पर
चलती चली जाऊंगी।
-बेला विरदी