खोजती हूं 

समय का एक टुकड़ा मुट्ठी से मेरी
सिक्ता की भांत फिसल गया,
बह गया मेरे जीवन से दूर कहीं।
उस बहाव को छान रही हूं
शायद कोई छूटा पल
मेरे हाथों के पोरों को छू जाए।
निशान, सांसों की धोंकनी वालों के नहीं रहते
भग्न किलों, उदास हवेलियों,
मृत दफन शहरों के मिलते हैं।
पत्थरों के स्मारक,
यादगारें बेजान होती हैं।
जो चहकते महकते थे कभी जिनसे,
स्पंदनों के शांत होते ही जड़ हो जाते हैं।
ढूंढ़ने निकली थी जिन जीते जागते क्षणों को
भावभीनी हंसी और गीत को,
जो मेरे अधरों से निकले थे कभी
आज दुबक कर छिप गये जाने कहां।
आवाज़ देती हूं तो खो जाती है शून्य में
सहम कर ज्यों की त्यों खड़ी हूं मैं।
सूखे पत्तों की मरमराहट में
खोजती हूं सरसराहट हरियाली की मैं।
-बेला विरदी

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