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अपना वजूद तराश लूंगी

मेरे वजूद पर आज तक लिखे गए अनेकों पृष्ट।
क्या कोई कर पाया मेरे साथ न्याय?
नारी पुरुष थे पूरक परस्पर
फिर छल क्यों किया पुरुष ने।
अधूरा जीवन, आशाएं अधूरी
पहचान अधूरी, आवाज अधूरी,
मैं मांगूगी हर प्रश्न का उत्तर।
कभी पूछा था मैंने,
मेरे अवसाद भरे दिन कितने?
हथेली में आयु की रेखा की
लम्बाई जितने।
यह मान्यता अब टूटेगी
इसी चेष्टा में कई पीढ़ियां
चढ़ गई थी बली बेदी।
मेरा प्रतिरोध किया मेरे
पिता, भ्राता, पति, पुत्र ने।
मेरे जन्म पर घर नींव नहीं हिली
सबसे अधिक बेड़ियां पहनाईं आपने।
बहन बन जीवन भर साथ निभाती हूं
तेरे हर सुख दुःख को मै समझती हूं।
पति, तुम्हारा स्वार्थ हर कदम भुगता मैंने
तुम्हारे शक, जुल्म को हर दिन ढका मैंने।
पुत्र, तुम मेरे हाड़, मांस, मज्जा से बने हो
मृत्यु को जीत तुझे जना मैंने।
इस पुरुष समाज में आज भी
मैं हूं एक अनबूझ पहेली।
बस अब पूर्ण विराम लगा दिया
सहनशीलता की और पराकाष्ठा नहीं झेलूंगी ।
अदम्य साहस भरा है मुझमें
उड़ नभ को छू लूंगी मै।
-बेला विरदी

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