सामना संवाददाता / मुंबई
प्रेमावतार, युगदृष्टा, श्री हरि कृपा पीठाधीश्वर व विश्व विख्यात संत स्वामी श्री हरि चैतन्य पुरी जी महाराज ने यहां मीरा-भायंदर में उपस्थित विशाल भक्त समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि श्रद्धा, विश्वास और प्रेम तीनों ही यदि जीवन में उतर जाए तो संतोष और सच्चे आनंद की अनुभूति होने लगती है। यह तीनों की वह त्रिवेणी है, जो जीवन यात्रा में निरसरता हटाकर जीवन में सरसता भरती है तथा हमारे अंतःकरण की मलीनता को दूर करती है। हमें अश्रद्धा, अविश्वास और वैर से सदैव दूर रहना चाहिए, तभी जीवन में सच्ची सुख-शांति मिल सकती है।
यदि इंसान शांतिपूर्वक जीना चाहता है तो उसे श्रद्धा, विश्वास और प्रेम को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाना चाहिए। आधुनिक जीवन शैली में रची-बसी जटिलताएं और तनावपूर्ण स्थितियों से निपटने के लिए यदि हम इन तीन शब्दों के महत्व को जान लें तो कलह-क्लेश, दुख-शोक और कष्ट आदि सब मिलकर भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। आध्यात्मिक शक्ति के संरक्षण और संवर्धन के लिए मन में श्रद्धा होनी अति आवश्यक है।
उन्होंने कहा कि श्रद्धा हमारे अहंकार को दूर करती है। श्रद्धावश ही हम दूसरों का हृदय से सम्मान करते हैं। श्रद्धा का प्रतिफल हमें आशीर्वाद के रूप में प्राप्त होता है। श्रद्धा का परिणाम सदैव शुभदायक और मंगलकारी होता है। इसलिए श्रद्धावान व्यक्ति विषम परिस्थितियों में भी अपने आत्मबल के सहारे टिका रहता है। सच्चे श्रद्धालुओं के सभी संकल्प पूर्ण हो जाते हैं। यदि हमारा मन निर्मल है हमारी मनोभूमि में अवगुणों का प्रदूषण नहीं है और हम दुर्व्यसनों के शिकार नहीं हैं तो श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के अंकुर पल्लवित होने में देर नहीं लगती। हम शीघ्र ही श्रद्धानत हो जाते हैं।
भगवान के कृपा पात्र बन जाते हैं। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि जैसी जिसकी श्रद्धा होती है, वैसा ही उसका स्वरूप हो जाता है, क्योंकि श्रद्धा सदैव अंत:करण के अनुरूप होती है इसलिए मनुष्य को सदैव सात्विक श्रद्धा से युक्त रहना चाहिए।
उन्होंने कहा कि हम सभी के अंदर सदैव से अच्छाई व बुराई, धर्म-अधर्म, उचित-अनुचित इत्यादि द्वंद चल रहा है। लेकिन यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि हम किसे जगाते हैं। मन की चंचलता को अभ्यास द्वारा रोककर एकाग्रचित्त होकर, बर्हिमुखता त्यागकर, अंर्तमुख होकर हम अपनी स्वयं की प्रभा को जागृत कर सकते हैं। अध्यात्म पथ पर अग्रसर हो सकते हैं। प्रभु भक्ति का यदि हृदय में निवास हो तो किंचित मात्र भी प्रत्यक्ष में तो क्या स्वप्न में भी हमें दुख व्यथित नहीं कर सकते। किसी सुखी को देखकर ईर्ष्या करना व दुखी को देखकर प्रसन्न होना यह दुष्टता के लक्षण हैं। आज हर ओर आसुरी प्रवृत्तियों का बोलबाला है। धर्म के अनुष्ठान चाहे बहुत हो रहे हैं, परंतु धर्म के आचरण में इतनी वृद्धि नहीं हो रही है। मदिरापान, मांसाहार, दूसरों के अनिष्ट-चिंतन व अनिष्ट दिल दुखाना, जीवों की हत्या करना, वेद-शास्त्रों के प्रतिकूल चलना, तीर्थ, मंदिर, मस्जिद, चर्च इत्यादि की मर्यादाओं को समाप्त करने का प्रयास, माता-पिता व बुजुर्ग, संत, महापुरुषों का अनादर व तिरस्कार करना, देश व समाज को तोड़ने की घृणित साजिशें करना अथवा किसी प्रकार से भी उनमें सहयोग देना इत्यादि ये सभी आसुरी प्रवृत्तियां हैं। हम सभी स्वयं इनसे दूर रहें, साथ ही औरों को बचने की प्रेरणा दें।
उन्होंने कहा कि धर्म के उत्थान व अधर्म के विनाश के लिए यथासामर्थ्य, यथासंभव योगदान भी अवश्य दें। शबरी, निषाद इत्यादि जैसे समाज में ठुकराए व उपेक्षित वर्ग को भी गले लगाएं, तभी राम के सच्चे भक्त कहलाने के अधिकारी हो पाएंगे। सभी में परमात्मा के दर्शन करते हुए व्यवहार करो, जो समस्त संसार को प्रभुमय कहते हैं या देखते हैं तो वे विरोध किससे करते हैं। वैर-विरोध, घृणा, द्वेष, अशांति इत्यादि त्यागो। कर्म, भक्ति व ज्ञान का जीवन में समन्वय स्थापित करो।
यहां पहुंचने से पूर्व माहेश्वरी समाज के अध्यक्ष, सचिव, सभी सदस्यों व बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं ने श्री महाराज जी का फूल-मालाएं पहनाकर, पुष्प वृष्टि करते हुए, आरती उतारकर “श्री गुरु महाराज” “कामां के कन्हैया” व “लाठी वाले भैय्या” की जय जयकार के साथ पूर्ण धार्मिक रीति से भव्य व अभूतपूर्व स्वागत किया।
महाराज श्री के दर्शनार्थ व दिव्य प्रवचनों को सुनने के लिए स्थानीय, क्षेत्रीय व दूर-दराज से काफी संख्या में भक्त जन पहुंचे। अपने धाराप्रवाह प्रवचनों से उन्होंने सभी भक्तों को मंत्रमुग्ध व भाव विभोर कर दिया। सारा वातावरण भक्तिमय हो उठा व ”श्रीगुरु महाराज”, “कामां के कन्हैया” व “लाठी वाले भैय्या“ की जय जयकार से गूंज उठा।