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अंधाधुंध कॉर्पोरेटीकरण की नीतियों में तेजी … अयोध्या में जमीनों की खरीद-फरोख्त … २०१७ के बाद से अब तक भूमि का सर्किल रेट पुनर्निर्धारण नहीं

सामना संवाददाता / अयोध्या
एक पुरानी कहावत है ‘कोयले की दलाली में हाथ काला’ ही होता है। आज की अयोध्या में ‘भूमि की दलाली में हाथ काला’ में बदलकर कहा जाए तो ‘नया’ ही हो रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि संप्रदायवादी आमतौर पर अपने धर्म की उदात्तता, मूल्यों व नैतिकताओं से तभी तक बंधे रहते हैं, जब तक उनका स्वार्थ हित सधता रहे। अन्यथा वे अपने स्वार्थों को धर्म से बड़ा बनाने और उनकी साधना के लिए धर्म-अधर्म का भेद मिटाने लग जाते हैं।
इस दलाली में मौकापरस्त संप्रदायवादी सत्ताधीशों, राजनेताओं, नौकरशाहों, धन्नासेठों, धर्माधीशों, धंधेबाजों व माफियाओं में से किसके हाथ ज्यादा काले हैं? इतना भर समझ लेना पर्याप्त है कि २०१९ में पांच नवंबर को सर्वोच्च न्यायालय ने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को अंतिम रूप से निस्तारित कर दिया और उसके अनुसार गठित श्रीराम जन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट की देख-रेख में भव्य राम मंदिर का निर्माण आरंभ हुआ तो केंद्र, उत्तर व प्रदेश की उसकी समर्थक सरकारों द्वारा उसके समानांतर त्रेताकालीन गौरव की पुनर्स्थापना के बहाने अयोध्या के अंधाधुंध कॉर्पोरेटीकरण की नीतियों पर तेजी से अमल आरंभ कर दिया गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने अयोध्या में २०१७ के बाद यानी पिछले सात साल से भूमि का सर्किल रेट ही पुनर्निर्धारित नहीं किया।

अयोध्या (फैजाबाद) के समाजवादी पार्टी के नए सांसद अवधेश प्रसाद कह रहे कि इन सभी महत्वाकांक्षियों का और जो भी परिचय हो, सबसे बड़ा सामूहिक परिचय है कि ये सभी ‘बड़ी पूंजी वाले’, ‘भाजपा से जुड़े’ या उसके और उसकी सरकारों के समर्थक हैं। उन्होंने इन सरकारों की शह से ही आम किसानों की अरबों की भूमि कौड़ियों के भाव ले लेने में सफलता पा ली है और अब निर्माणाधीन राम मंदिर से पंद्रह-बीस किलोमीटर के दायरे में आने वाली भूमि के दाम सातवें आसमान पर पहुंच गए हैं और आगे भी और ऊंचे ही जाने वाले हैं, तो उनकी बांछें खिली हुई हैं।

बहुत पुराना है मर्ज!
लेकिन हालात का एक और पहलू भी है। राम मंदिर निर्माण आरंभ होने के वक्त से ही भूमि सौदों में भ्रष्टाचार या भूमि की लूट को लेकर अयोध्या जब भी सुर्खियों में आती है, उसकी चर्चा तो खूब चटखारे लेकर की जाती है, लेकिन इस बात को भुला दिया जाता है कि इस भ्रष्टाचार या लूट की जड़ें बहुत पुरानी हैं। २२-२३ दिसंबर, १९४९ को बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रखे जाने के वक्त पैâजाबाद के असिस्टेंट कमिश्नर व जिला मजिस्ट्रेट रहे केके नायर ने इस लूट को ‘नए आयाम’ देते हुए कुल नौ महीने १४ दिन के अपने कार्यकाल में ही खुद को बड़ी भू-संपत्ति का मालिक बना डाला था।

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