हृदयनारायण दीक्षित
‘आहार’ व्यक्तित्व का आधार है। आहार पर भी देशकाल का प्रभाव होता है। ठंडी जलवायु वाले देशों में शरीर के ताप को विशेष स्तर पर बनाए रखने की जरूरत होती है। ऐसे देशों में अधिक ऊष्मा देने वाले आहार का चलन होता है। प्राचीन भारत में आहार की दृष्टि से व्यापक चिंतन हुआ है। अन्न ही काया का निर्माता है, इसी से ऊर्जा है, इसी से प्राण और जीवन भी। वैदिक समाज ने भोजन का गहन विवेचन किया है, ‘वैदिक काल में आर्यों के मुख्य भोज्य पदार्थ अन्न, कंदमूल, फल, दूध और घृत थे। ब्रीहि, यव, तिल माश-उड़द, सरसों और गन्ने का उल्लेख मिलता है। तंदूल का उल्लेख भी है। यह चावल है। उबाले गए तंदूलों को ‘ओदन’ कहते थे।’ उन्होंने ऋग्वेद में ‘क्षीरपाकमोदनम’-दूध में पकाए चावल का भी उल्लेख किया है। छान्दोग्य उपनिषद् में आहार को मुक्तिदाता कहा है। कहते हैं कि आहार शुद्धि से सत्व-सिद्धि होती है। सत्व सिद्धि से सुंदर स्मृति मिलती है। स्मृति से तत्व ज्ञान मिलता है और तत्वज्ञान से मुक्ति मिलती है। आहार शुद्धि के लाभ महत्वपूर्ण हैं।
भोजन की गुणवत्ता जरूरी है और भोजन शैली की भी। शतपथ ब्राह्मण व तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार, तब भोजन दो बार किया जाता था। बैठकर भोजन की परंपरा थी। ऋग्वेद में भोजन की स्तुति भी है। ब्रह्म पुराण के अनुसार घोड़ा, गाड़ी, मंदिर, बिस्तर पर भोजन नहीं करना चाहिए। भोजन के शिष्टाचार भी प्राचीन साहित्य में हैं। जैसे पंक्ति में प्रथम स्थान पर आग्रह के बाद ही बैठना चाहिए। सबके साथ ही उठना चाहिए। भविष्य पुराण में निषिद्ध भोजन के उल्लेख हैं। गंदे हाथों से परोसा गया, कुत्तों आदि से छुआ गया भोजन दुष्ट कहा गया है। बासी, दुर्गंध युक्त भोजन या बच्चा देने के १० दिन के भीतर का गोदूध ‘कालदुष्ट’ कहा गया है।
शरीर, मन, बुद्धि और प्रज्ञा के निर्माण में अन्न की भूमिका है। तैत्तिरीय उपनिषद् में वरुण द्वारा पुत्र भृगु को दिया गया उपदेश है। भृगु ने पिता वरुण से ब्रह्म की जिज्ञासा की। वरुण ने कहा, ‘अन्न, प्राण, नेत्र, कान, मन और वाणी ब्रह्म प्राप्ति के द्वार हैं।’ भृगु ने निश्चय किया ‘अन्न ब्रह्म है-अन्नं ब्रह्ममेति व्यजनत। प्राणी अन्न से बढ़ते हैं। मृत्यु के बाद अन्न क्षेत्र पृथ्वी में समा जाते हैं।’ अन्न महत्वपूर्ण है। भौतिकवादी उपनिषद् साहित्य को अंधविश्वासी, भाववादी बताते हैं। वे वैदिक साहित्य का दार्शनिक यथार्थवाद नहीं देखते। एक मंत्र में कहते हैं ‘यह व्रत संकल्प है कि अन्न की निंदा न करें-अन्नं न निन्द्यात्। अन्न ही प्राण है। प्राण ही अन्न है। यह शरीर भी अन्न है। शरीर और प्राण का अंतर्संबंध है। अन्न ही अन्न में प्रतिष्ठित है। जो यह जान लेता है, वह महान हो जाता है-महान् भवति, महानकीत्र्या। (७वां अनुवाक) फिर बताते हैं ‘यह व्रत है कि अन्न का अपमान न करें-अन्नं न परिचक्षीत, तद् व्रतम्। जल अन्न है। जल में तेज है, तेज जल में प्रतिष्ठित है, अन्न में अन्न प्रतिष्ठित है, जो यह जानते हैं वे महान होते हैं, कीर्तिवान होते हैं।’ (८वां अनुवाक) फिर कहते हैं ‘यह व्रत है कि खूब अन्न पैदा करे-अन्नं बहुकुर्वीत। पृथ्वी अन्न है, आकाश अन्नाद है। आकाश में पृथ्वी है, पृथ्वी में आकाश है। जो यह बात जानते हैं वे अन्नवान हैं, महान बनते हैं।’ (९वां अनुवाक)
उपनिषद् का अंतिम मंत्र बड़ा प्यारा है ‘व्रत है कि घर आए अतिथि की अवहेलना न करें। अन्न का प्रबंध करें। अतिथि से श्रद्धापूर्वक कहे-अन्न तैयार है। ऐसा करने वाले के घर अन्न रहता है, मध्यम और साधारण रीति से इस कार्य करने वाले के घर साधारण अन्न भंडार ही रहता है।’ (१०वां अनुवाक) यहां आहार का अर्थ अन्न है। उत्तरवैदिक काल की प्रश्नोपनिषद् (१.१४) में अन्न को प्रजापति ब्रह्म बताया गया है-अन्नं वै प्रजापति। ऐतरेय उपनिषद् में कहते हैं, ‘सृष्टि रचना के पूर्व ‘वह’ अकेला था, दूसरा कोई नहीं था। उसने सृजन की इच्छा की-स ईक्षत् लोकान्नु सृजा इति। उसने लोक रचे। aउसने लोकपाल रचे। फिर इच्छा की कि अब लोक और लोकपालों के लिए अन्न सृजन करना चाहिए। उसने अन्न बनाए। (खंड २ से खंड ३ तक) योगसूत्र बहुत बाद में रचे गए। उपनिषदों में शरीर अन्नमय कोष है। योग सूत्रों में भी शरीर को अन्नमय कोष कहा गया। भारत में अति प्राचीन काल से अन्न ही प्रमुख भोजन रहा है।
चरक संहिता में आहार जीवों का प्राण कहा गया है-‘वह अन्न-प्राण मन को शक्ति देता है, शरीर की संपूर्ण धातुओं व बल वर्ण और इंद्रियों को प्रसन्नता देता है।’ आहार शुद्धि का ध्यान रखा जाना चाहिए। बताते हैं ‘भोजन से उदर पर दबाव न पड़े, हृदय की गति पर अवरोध न हो, उदर में क्रूरता न हो, इंद्रियां (भी) तृप्त रहें।’ गीता में सत्व, रज और तम के अनुसार, भोजन को तीन प्रकार का बताया गया, लेकिन चरक की स्थापना है ‘सत्व, रज और तम के प्रभाव में मन तीन तरह का दिखाई पड़ता है परंतु वह एक है।’ मन बड़ा कारक है। मनोनुकूल स्थान पर भोजन करने के अतिरिक्त लाभ हैं, ‘मन के अनुकूल स्थान पर भोजन से मानसिक विकार नहीं होते। मन के अनुकूल स्थान और मनोनुकूल भोजन स्वास्थ्यवर्द्धक हैं।’ (वही ५५९)भूख स्वाभाविक इच्छा है। यह हमारी योजना का परिणाम नहीं है। भोजन बिना शरीर नहीं चलता। सो प्रकृति ने हम सबके शरीर में ‘भूख’ नाम की इच्छा जोड़ी है। मैं अपने सहायक दल के साथ उत्तर प्रदेश में प्रवास पर था। भूख लगी थी। मैं सड़क के किनारे ढाबे की खोज में था। स्थानीय पुलिस ने मुझे एक सुंदर होटल तक पहुंचाया। ठेठ ग्रामीण क्षेत्र वाले होटल में भी मैनेजर ने मिक्स वेज अंग्रेजी टाइप भाषा में खाद्य पदार्थों के नाम बताए। टमाटर को पानी में उबाल कर मसाला मिलाकर बने रस को ‘टोमैटो सूप’ कहना उचित है, पर इसके गाढ़ेपन का राज क्या? मन में प्रश्न उठे कि इसमें कुछ मिलाया तो नहीं गया? उसने पिज्जा-फिज्जा जैसी अनेक चीजों का प्रस्ताव किया। गांव-देहात में भी इटली, यू.के. और अमेरिका की अनुभूति थी। पिज्जा के बारे में सुना है कि यह भोजन से बचे अवशेषों को गरीबों को खिलाने के लिए एक ब्रेड पर रखा गया उच्छिष्ट है।
आधुनिक काल में भारत में भी भोजन संबंधी प्राचीन ज्ञान खारिज कर दिया गया है। फास्ट फूड का जमाना है। मांसाहार के नए तरीके आए हैं। शराब की खपत बढ़ी है। इसी का परिणाम है कि नए-नए रोग बढ़े हैं। तनाव बढ़े है। क्रोध बढ़ा है, क्रोधी बढ़े हैं। क्या हम भारतवासी छोटे नकलची हैं? हम दूसरे देशों के वैज्ञानिक शोध, अध्ययन और ज्ञान-विज्ञान की नकल नहीं करते। ज्ञान-विज्ञान में हम दुनिया से प्रेरित नहीं होते, लेकिन उनके भोजन, हैप्पी क्रिसमस या हैप्पी न्यू इयर का पट्टा बांधे आधुनिक हो जाने की गलत फहमी में हैं। आधुनिक होना ही है, तो पढ़ाई-लिखाई को अद्यतन बनाना चाहिए और संस्कारों को पुननर्वा शक्ति देनी चाहिए। खेद है कि भारत में भी विदेशी का प्रभाव है और भारतीय भोजन का अभाव।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के
पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)