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शिलालेख : हमारे प्रतिभाशाली पूर्वज

ह्रदयनारायण दीक्षित

लखनऊ

अयोध्या अंतर्राष्ट्रीय चर्चा में है। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर विश्व आकर्षण है। लाखों श्रद्धालु दर्शनार्थ आ रहे हैं। अयोध्या में दर्शनार्थियों का मेला है। प्रसन्नता का विषय है कि यहीं सप्तऋषियों का मंदिर भी बनाने की तैयारी है। श्रीरामजन्मभूमि मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष नृपेंद्र मिश्र ने यह घोषणा की है। सप्तऋषि मंदिर का निर्माण मार्च से शुरू होना है। भारत के अंत:करण में ऋषियों के प्रति श्रद्धा है। ऋषि अनूठे हैं। वे प्रकृति की प्रत्येक गतिविधि के द्रष्टा हैं। सो, उन्हें ऋषि कहा गया-ऋषियों मंत्र द्रष्टार। जो मंत्र देखता है, वही ऋषि है। वैदिक साहित्य के कवि ऋषि कहे जाते हैं। वे संन्यासी नहीं हैं। साधारण गृहस्थ हैं। वे परिवार चलाते हैं। खेती सहित जीविका के अन्य काम भी करते हैं, लेकिन मंत्र सृजन भी करते हैं। वे प्रकृति के प्रति आत्मीय हैं। वे मधु प्रिय हैं। मधु और आनंद पर्यायवाची हैं। अस्तित्व के कण-कण व हरेक रूप पर उनकी दृष्टि है। वे आश्चर्यजनक द्रष्टा हैं। जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी के साथ ही आकाश तक देखते हैं। सूर्य के निराधार लटके होने पर भी उनके मन में प्रश्न थे। भारतीय परंपरा में आनंद प्राप्ति की अनेक साधनाएं थीं। साधनारत लोग साधु कहे गए। साधना में सिद्ध जन मुनि बताए गए, लेकिन ऋषि की बात ही दूसरी है। राजा को बड़ा बताना हो तो राजर्षि कहा गया। प्राचीन साहित्य में ब्रह्मवेत्ता की बड़ी प्रशंसा है, लेकिन उसे भी और बड़ा बताना हो तो ब्रह्म ऋषि कहने की जरूरत पड़ी। ऋषि पूरी सृष्टि को आत्मीयता से देखते हैं और पूरी आत्मीयता से मंत्र भी गाते हैं।
भारत की प्रज्ञा में बहुत गहरे तक ऋषि का सम्मान है। नारद को ही लीजिए। नारद जैसी क्षमता वाला दूसरा पात्र परंपरा में नहीं है। उनके लिए भौगोलिक दूरी का कोई मतलब नहीं। वे सभी लोकों में घूमते हैं। वाद्ययंत्र लेकर समय का अतिक्रमण करते हैं। एक पल में इस लोक में, अगले पल दूसरे लोक में। वे वैदिक मंत्रों में मिलते हैं और पुराण काल की कथाओं में भी। महाभारत और रामायण की भी तमाम कथाओं में उनके विवरण हैं। उन्हें देव कहकर भारत का मन नहीं अघाया। सो, देव के साथ ऋषि जोड़ा गया। वे देवर्षि कहे गए। जान पड़ता है कि परंपरा में ऋषि होना ही बड़ा होना है, बिना ऋषि हुए क्या होना? लेकिन ऋषि धरती पर ही थे। भारत के मन को लगा होगा कि कुछ प्रतिष्ठित ऋषियों को आकाश में भी देखा जाए। तब सात ऋषियों को आकाश में प्रतिष्ठित करने का अभिनव आयोजन हुआ होगा। कब हुआ? कैसे हुआ? इसके भौतिक प्रमाण नहीं। लेकिन यह हुआ।
भारत का मन ऊर्ध्व प्रिय है। सूर्य ऊपर और ऊंचे हैं। सो, स्तुतियां पाते हैं। चंद्र ऊपर है, हम उन्हें ब्रह्माण्ड का मन कहते हैं। हमारी प्रार्थना का ईश्वर कण-कण व्यापी है, लेकिन हम उसे ‘ऊपर वाला’ कहते हैं। स्वर्ग है या नहीं? अब तक सिद्ध नहीं, लेकिन हम स्वर्ग को भी ऊपर या आकाश स्थित सुनते आए हैं। समृद्धि संसारी है। हम ‘समृद्धि‘ को ऊपर उठना बताते हैं। यश कीर्ति भी संसारी हैं, हम यशस्वी को ऊंचा या ऊपर बताते हैं। मेरे जैसे लोगों को ऊंचाई पर डर लगता है। लेकिन ऊंचाई की प्रतिष्ठा है। अग्नि प्रत्यक्ष है, इसकी लौ-लपट ऊपर जाती है। जल हमेशा ऊपर से नीचे को बहता है। लेकिन इस बहाव को भी बादल के रूप में ऊपर जाते देखकर हम प्रसन्न होते हैं। मनुष्य धरती पर है, अन्य ग्रहों में है या नहीं? पता नहीं। लेकिन देवताओं का निवास बहुत ऊपर परमव्योम में बताया जाता है। आकाश तक पहुंचना हमारी प्यास है। इसीलिए हमारे प्रिय सात ऋषि आकाश में चमकते हैं।
विकास का क्रम सूक्ष्म से स्थूल की ओर हुआ है। भारतीय चिंतन के पांच महाभूतों-आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में आकाश पहला है। आकाश का गुण शब्द बताया गया है। ऋग्वैदिक पूर्वजों के अनुसार, ‘ऋचाएं या कविताएं परम व्योम’ में रहती हैं और वहीं से चलकर जागृत मनुष्यों के चित्त में उतर जाती हैं।’ सप्तऋषि आकाश में हैं। अयोध्या में उन्हें धरती पर भी प्रतिष्ठित करने की योजना है। आकाश में तारे हैं। तारों के विशेष प्रकार के प्राकृतिक आकर्षक संयोजन भी हैं। आचार्य वराह मिहिर ने ५६० ई. के आस-पास ज्योतिर्विज्ञान पर वृहत संहिता लिखी थी। डॉ. सुरेशचंद्र ने इसकी व्याख्या की है। आकाश गंगा या सप्तऋषियों को आकाश में बैठाना भारत का भावरस हो सकता है। वैसे भी हमारे पूर्वजों की दृष्टि आकाश की ओर रही है। कालिदास की रचना ‘मेघदूत’ में आकाश मार्ग की रम्यता का ललित वर्णन है। वराह मिहिर ज्योतिर्विज्ञानी थे। उन्होंने भी सप्तऋषियों को आकाश में देखा, प्रतिष्ठित किया। लिखते हैं, ‘सप्तऋषियों से उत्तर दिशा सौभाग्यशाली नायिका की तरह सुशोभित होती है।’ बताया है कि पश्चिमी यूनानी ज्योतिष में इन तारों में एक भालू के आकार की कल्पना की गई है।’ ये सप्तऋषि धु्रव तारे की परिक्रमा करते हैं। मरीचि, वशिष्ठ, अंगिरा, अग्नि, पुलस्त्य, पुलह और क्रेतु ये सात नाम उन्हें दिए गए हैं।’ तारों में ऋषि देखना विज्ञान का विषय नहीं है। ऋषि वैदिक परंपरा में कवि हैं। मनुष्य हैं। तारे मनुष्य नहीं हैं। भरतीय भावबोध ने उन्हें आकश में बैठाया है।
ऋग्वेद सहित चार वेदों में अनेक ऋषियों के लगभग बीस हजार मंत्र हैं। सभी ऋषि आदरणीय हैं। वराह मिहिर ज्योतिर्विज्ञानी ने अपनी सूची दी है। महाभारत में सप्तऋषियों की दो सूचियां हैं। अलग-अलग संदर्भ में। ऋग्वेद में दस मंडल या खंड हैं। दूसरे से लेकर सातवें मंडल तक ६ मंडलों को ‘वंश मंडल’ कहा जाता है। ६ मंडलों में ६ ऋषि कुलों के मंत्रों के संकलन हैं। यह सूची स्थायी है। दूसरा मंडल गृत्समद् वंश कुल का है और तीसरा है विश्वामित्र वंश का। चौथा वामदेव का, पांचवां अत्रि का, छठा भरद्वाज और सातवां वशिष्ठ कुल का। बताते हैं कि गृत्समद् ने बाद में स्वयं को शौनक कुल घोषित कर दिया था, इसलिए उन्हें शौनक कुल भी कहा जाता है। कण्व कुल के भी तमाम मंत्र हैं। ये सात ऋषि ऋग्वेद के मुख्य द्रष्टा हैं। मूल बात है इन्हें ‘नभ-मंडल’ में प्रतिष्ठित करना। सृष्टि जब तक रहेगी, तब तक सूर्योदय व सूर्यास्त भी होंगे। आनेवाले हरेक सूर्यास्त के बाद आकाश में दिखाई पड़ेंगे विश्वामित्र, वशिष्ठ, अत्रि और भरद्वाज सहित सात ऋषि। हमारे प्रतिभाशाली पूर्वज। क्या हम उन्हें भुला सकते हैं? वे आकाश में बैठे हुए भूलने की कोशिश असफल कर देंगे।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)

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