मुख्यपृष्ठस्तंभशिलालेख : अद्भुत है ‘स्मृति’ तंत्र!

शिलालेख : अद्भुत है ‘स्मृति’ तंत्र!

 हृदयनारायण दीक्षित
स्मृति को सामान्यतया अतीत का भाग कहा जाता है, लेकिन स्मृति हमेशा वर्तमान होती है। घटनाएं या विचार अभिव्यक्ति या अन्य सरोकार बेशक अतीत का भाग होते हैं, लेकिन उनकी स्मृति हमेशा वर्तमान है। अच्छी स्मृति परम सौभाग्य है। जो जितना जीवंत है, वह उतना ही स्मृतिपूर्ण। जीवन के अंतिम भाग में स्मृति क्षीण होती जाती है। बुढ़ापे में परिजन बताते हैं कि अब वे पहचान नहीं पाते। स्मृति समृद्धि परिपूर्ण तरुणाई है और स्मृतिलोप परिपूर्ण रुग्णता। परिवार, संपत्ति, ममत्व, अपनत्व, नेह-स्नेह का घनत्व सब कुछ स्मृति के सहारे हैं। स्मृति गई तो सब कुछ गया। स्मृति में संसार है। स्मृति नहीं तो संसार नहीं। स्मृति में शुभ है, अशुभ भी है। स्मृति के अनेक भाग आहतकारी होते हैं और अनेक भाग आह्लादकारी। भारतीय चिंतन में स्मृति को विशेष महत्व मिला है।
याज्ञवल्क्य स्मृति और मनुस्मृति आदि चर्चित स्मृतियां हैं। मनुस्मृति की प्रशंसा नीत्से जैसे विद्वानों ने की है। मनुस्मृति में एक कल्पित विधि व्यवस्था है। ऐसी विधि व्यवस्था भारतीय इतिहास की किसी भी राज्यव्यवस्था में नहीं थी।
‘स्मृति’ तंत्र अद्भुत है। देखे, सुने, पढ़े और अनुभूति प्रतीति का संचित कोष। स्मृति और विवेक ज्ञान का पर्याय हैं। ब्रिटेन के प्रतिष्ठित स्मृति विशेषज्ञ ई.डी. कूक ने स्मृति क्षमता के विकास पर मजेदार बात कही है। कूक के अनुसार ‘रोमांस और यौन संबंधों के बारे में सोचने से मस्तिष्क तीव्र होता है। भावनाएं और आकर्षण मिलते हैं, रुचि बढ़ती है। इससे स्मृति क्षमता में वृद्धि होती है।’ कूक ने जोड़ा है कि प्राचीन रोम और यूनान के राजनेता और तर्कशास्त्री वाद-विवाद के पूर्व यौन संबंध और रोमांस के बारे में सोचते थे। उनका मानना था कि इससे तर्कशक्ति का विकास होता है।’
भारतीय परंपरा में स्मृति क्षमता के लिए सतत अध्ययन व ‘शांति पाठ’ का प्रावधान है। हरेक उपनिषद् के प्रारंभ व अंत में शांति पाठ के मंत्र हैं। अशांत चित्त ज्ञान ग्राह्य नहीं होता। प्रशांत चित्त की ग्राह्यता का क्या कहना? पढ़े या सुने को स्मृति का स्थायी भाव बनाने के लिए पाठ के अंत में फिर से शांति पाठ की व्यवस्था है। केनोपनिषद् के शांतिपाठ में स्तुति है ‘यहां प्रतिपादित तत्व मुझमें रहें, मैं उनमें रहूं।’ मेरा सुना देखा गया सुरक्षित रहे। ऐतरेय उपनिषद का शांति पाठ ध्यान देने योग्य है, ‘मेरी वाणी मन में स्थिर हो। मन वाणी में स्थिर हो। मन और वाणी अलग-अलग न हों। हे मन और वाणी! तुम दोनों मुझे ज्ञान प्राप्त कराओ। आचार्य से सुना और अनुभव से प्राप्त ज्ञान मेरा त्याग न करे। यहां स्मृति को सुदृढ़ और सर्वकालिक बनाने की स्तुति है।’
यौन विचार या रोमांस चित्त प्रशांत नहीं करते। चित्त अशांत करने में ही उनकी भूमिका है और अशांत चित्त मूल स्मृति को भी अव्यवस्थित करते हैं। स्मृति ज्ञान संपदा है। हमारा भोगा और जाना हुआ सार। पाया हुआ, खोया हुआ, कहा सुना और पढ़ा हुआ अमूल्य संचय। यहां कोई चुनाव नहीं। स्मृति में सार्थक-निरर्थक का सहअस्तित्व है। इतिहास स्मृति है और संस्कृति भी। वेद, भौतिकी, पराभौतिकी, खगोल या भूगोल भी स्मृति हैं। वैदिक संहिता को श्रुति कहा जाता है। वे सुने गए हैं। तब लिपि नहीं थी। वे सुनाए गए थे। तब वे सुनाने वाले ऋषियों की स्मृति में थे। बाद में सुनने वाले भाग्यवानों की स्मृति का भाग बने।
स्मृति में अनंत रंग रूप हैं। इनमें से सत्य, शिव और सुंदर का चयन हमारा काम है। सत्य, शिव और सुंदर के निर्णय भी हम स्मृतिकोष से ही करते हैं। स्मृतिकोष में उपस्थित तथ्यों से उनकी जांच करते हैं। तब उन्हें सत्य-असत्य, शिव-अशिव या सुंदर असुंदर के खांचे में डालते हैं। हमारा चित्त निर्णायक भूमिका का निर्वहन करता है, लेकिन निर्णय के हरेक क्षण और चुनौती में स्मृति ही आधारभूत भूमिका निभाती है। स्मृति प्रकृति का प्राणवान उपहार है मानव जाति के लिए। मनुष्य को ही क्यों सभी प्राणियों के लिए भी। पौधों की संवेदनशीलता स्मृतिपूर्ण है। वे पानी देनेवाले किसान या कर्मचारी को देखकर प्रसन्न होते हैं और लकड़ी काटने वाले को देखकर सन्न। पशु भी पालक को देखकर पुलकित होते हैं और कसाई को देखकर भयग्रस्त। सारे खेल प्रकृति और स्मृति के हैं।
स्मृति हमें सचेत करने का काम करती है। निर्णय लेना हमारा ही काम है। स्मृतिलाभ वास्तविक लाभ है। अर्जुन को मिली स्मृति असाधारण है। हमारी स्मृति में अपने गांव, क्षेत्र की सड़कों के नाम संख्या, लंबाई, चौड़ाई हो सकते हैं। मित्रों, शत्रुओं के नाम फोन नंबर भी स्मृति भाग हो सकते हैं। होते भी हैं। अर्जुन के पास ऐसी स्मृति थी। यहां वस्तुत: मूल स्मृति का उल्लेख है। हम अनंत के अंश हैं। हम अनंत ही हैं, लेकिन हमारा बोध इकाई का है। हमारे स्मृतिकोष के सारे अनुभव अंशी हैं। हम हैं, वस्तुए हैं। हम है और वन उपवन। हम हैं और यह संसार है। गहन संपूर्णता के बोध में हमारी स्मृति संपूर्ण को समेट लेती है। वृहदारण्यक उपनिषद् के एक मंत्र में ऋषि ऐसी ही स्मृति की चर्चा करते हैं- ‘यह पूर्ण है, वह पूर्ण है, यह पूर्ण उस पूर्ण का विस्तार है। पूर्ण में पूर्ण घटाओ तो पूर्ण ही शेष बचता है।’ गीता में इसी स्मृति की चर्चा है। कथावाचक ज्ञानी प्रोफेसर या आचार्य पूर्ववर्ती विद्वानों के ज्ञान का उल्लेख करते हैं। हम उन्हें विद्वान कहते हैं। स्मृति और विवेक के कारण ही वे विद्वान हैं।
गीता में ज्ञान परंपरा है। कृष्ण ने अर्जुन को बताया था कि ‘यह ज्ञान मैंने ही सूर्य को दिया था फिर परंपरा से तमाम ज्ञानियों, राजर्षियों तक पहुंचा, लेकिन काल के प्रभाव में यह ज्ञान नष्ट हो गया। वही ज्ञान मैं तुमको दे रहा हूं।’ यहां राष्ट्रीय स्मृति की चर्चा है। अर्जुन ने कहा कि ये सारे लोग बहुत पहले हुए थे। कृष्ण ने कहा ‘हमारे तुम्हारे तमाम जन्म हो चुके। मैं जानता हूं, तू नहीं जानता।’ श्रीकृष्ण की स्मृति गहरी है। अर्जुन की सामान्य। श्रीकृष्ण की स्मृति में अपने संभवन का संपूर्ण इतिहास है। अर्जुन की स्मृति में तात्कालिक जीवन की स्मृति। ‘स्मृति लब्ध’ शब्द महत्वपूर्ण है। तब अंश, संपूर्ण हो जाता है। स्मृति आंतरिक दिव्यता है रोमांस चर्चा से इसकी क्षमता नहीं बढ़ती। कामसूत्र के रचनाकार वात्स्यायन ने इसे स्मृति क्षीणता का कारक बताया है। श्वेताश्वतर उपनिषद में हम सबको अमृत पुत्र कहा गया है। यह बात हम सबको स्मृति में सुरक्षित रखनी है।

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