मुख्यपृष्ठस्तंभशिलालेख : देश की राष्ट्रीय एकता का मूल तत्व सांस्कृतिक एकता है!

शिलालेख : देश की राष्ट्रीय एकता का मूल तत्व सांस्कृतिक एकता है!

हृदयनारायण दीक्षित
समय-समय पर दक्षिण से अलग देश बनाने की मांग उठती रहती है। सभी दलों को अपनी विचारधारा और अपनी रणनीति के अनुसार विषय रखने का अधिकार है। लेकिन देश तोड़ने की बात और अलग देश की मांग करने का समर्थन कोई भी सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्ता या देश का नागरिक नहीं कर सकता।
हिंदुस्थान संप्रभु राष्ट्र राज्य है। राष्ट्र की संप्रभुता की कोई सीमा नहीं है। यह असीम है, अविभाजित है और अखंड है। हिंदुस्थान किसी जन पंचायत या किसी समझौते का परिणाम नहीं है। यह स्वयंभू है और सांस्कृतिक दृष्टि से दुनिया का प्राचीनतम राष्ट्र है। ऋग्वेद में सप्तसिंधु की चर्चा है। सिंधु और पड़ोस की अन्य नदियों के क्षेत्र में ही वैदिक दर्शन का जन्म हुआ था। ऋग्वेद के एक मंत्र में कहते हैं कि, ‘इंद्र ने सात नदियों के क्षेत्र को वर्षा से भर दिया है।’ पुसालकर जैसे विद्वानों ने इसे एक सुनिश्चित देश माना है। इसी भूक्षेत्र में भारतीय संस्कृति और दर्शन का विकास हुआ।’ भारतीय संस्कृति सनातन प्रवाह है। हिंदुस्थान इसी संस्कृति से निर्मित राष्ट्र है। हिंदुस्थान के सभी राज्य संविधान की कृपा प्रसाद से अस्तित्व में हैं। सब देशवासी देश के प्रति निष्ठावान हैं। संविधान में केंद्र और राज्यों के अधिकार सुस्पष्ट हैं। संविधान ने किसी भी राज्य को बड़ा या छोटा बनाने के अधिकार दिए हैं। हिंदुस्थान के राज्य खूबसूरत संवैधानिक रचना हैं। संविधान की यह व्यवस्था भारतीय जन गण मन ने मुक्त मन से गढ़ी है। सभी संवैधानिक संस्थाओं के अधिकार और कर्तव्य सुपरिभाषित हैं। भारतीय राष्ट्र की मूल इकाई ‘हम भारत के लोग‘ है। हिंदुस्थान जन गण मन के आनंद से प्रतिबद्ध एक अनुराग है। विश्व कल्याण से प्रतिबद्ध एक निष्ठावान प्रीति है। देश के सभी लोगों की सुख, स्वस्ति और समग्र वैभव भारत का ध्येय है। इस ध्येय में विश्व शांति और विश्व कल्याण के आधारभूत तथ्य भी संविधान का भाग हैं। इसलिए हिंदुस्थान, हिंदुस्थान के लोगों के लिए एक अखंड श्रद्धा है।
हिंदुस्थान की रिद्धि, सिद्धि, समृद्धि और उपलब्धि समग्र हिंदुस्थान के लोगों के कर्मतप का परिणाम है। हिंदुस्थान की विश्व प्रतिष्ठा देश के सभी राज्यों और राज्यों के निवासियों के साझे कर्मफल का परिणाम है। देश के प्रत्येक व्यक्ति के परिश्रम और कर्तव्य पालन से राष्ट्र प्रतिष्ठित हुआ है। उत्तर दक्षिण या पूरब पश्चिम के आधार पर विचार करना व्यर्थ की बातें हैं और आहतकारी भी हैं। सुब्रह्मण्यम भारती विश्व प्रसिद्ध तमिल कवि थे। उन्होंने संपूर्ण हिंदुस्थान के गीत गाए हैं। बीते १९८२ को उनकी जन्म शताब्दी थी। कार्यक्रम के आयोजकों ने भारती की तमाम रचनाओं का हिंदी अनुवाद प्रकाशित कराया था। इस हिंदी अनुवाद संकलन की पहली कविता का नाम ‘वंदे मातरम्‘ है। भारती इस कविता में कहते हैं, ‘पराधीन जीवन पर लज्जित सारा हिंदुस्थान एक साथ है / हम सब यह संकल्प करेंगे / कभी नहीं परतंत्र रहेंगे / हम वंदे मातरम् कहेंगे।’ भौगोलिक दृष्टि से भारती दक्षिण के थे। पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। भारती के हृदय में वंदे मातरम् है। भारती की कविताओं में सप्तसिंधु भी है और भूगोल की दृष्टि से यह उत्तर पश्चिम में है। भारती को दक्षिण भारतीय कहा जा सकता है। यह सही भी है। लेकिन भारती के हृदय और बुद्धि में अखिल भारतीय अनुराग है। भारती गंगा के मैदानों की प्रशंसा करते हैं। उनके मन में उत्तर की गंगा बहती हैं और दक्षिण की कावेरी भी। ज्ञान को उत्तर दक्षिण में नहीं विभाजित किया जा सकता। वे दक्षिण के कांचीपुरम में बैठकर काशी के विद्वानों का संवाद सुनना चाहते हैं। वे इसके लिए एक विशेष प्रकार की टेक्नोलॉजी की कल्पना करते हैं, ‘ऐसे यंत्र बनाएंगे /कांचीपुरम में बैठकर /काशी के विद्वतजन का संवाद सुनेंगे। वैदिक साहित्य प्राचीन काल से ज्येष्ठ श्रेष्ठ माना जाता रहा है। भारती लिखते हैं, ‘मुख में वेदों का वास / हाथ में तीक्ष्ण असि शोभित मंगलकारी।’ भारती के सृजन में प्राचीन युग साधना भी है। विश्व प्रसिद्ध दर्शन शास्त्री अद्वैत दर्शन के प्रचारक आचार्य शंकर भी भौगोलिक दृष्टि से केरल के थे। कह सकते हैं दक्षिण के। लेकिन वे हिंदुस्थानी दर्शन के शीर्ष व्याख्याता हैं। उन्होंने चार धामों की स्थापना की। केवल दक्षिण में नहीं। उत्तर में बद्रीनाथ। दक्षिण में रामेश्वरम। पश्चिम में द्वारिका और पूरब में जगन्नाथ। विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य भी दक्षिण के थे। उन्होंने दर्शन और भक्ति की विशिष्ट व्याख्या की है। रामकथा विश्व की अमूल्य निधि है। इसकी प्रारंभिक घटनाएं उत्तर भारत की हैं। तमिल कवि कंब नमस्कारों के योग्य हैं। उन्होंने तमिल में रामकथा लिखी। तमिल में लिखी गई उनकी रामायण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय रहती है। देश के किसी भी तत्ववेत्ता और सृजक ने उत्तर दक्षिण की बात नहीं की है। डॉ. राधाकृष्णन दक्षिण के थे। विश्व दर्शन में उनके जैसा मेधावी दूसरा व्यक्ति नहीं दिखाई पड़ता। भारतीय दर्शन के पाठ के लिए सभी विद्वान राधाकृष्णन पर निर्भर हैं। उन्होंने हिंदुस्थान को अखंड और एक देखने समझने का दर्शन दिया था। परम भक्त हनुमान भारतीय देवतंत्र के निराले देवता हैं। माना जाता है कि हनुमान जी भी कर्नाटक के थे।
देश तोड़ने की धमकी प्रत्येक दृष्टि से अपराध है। इसे विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार नहीं माना जा सकता। संविधान अनुच्छेद (१९)में विचार अभिव्यक्ति की आजादी पर अनेक मर्यादाएं अधिरोपित की गई हैं। राजनैतिक अभियान की भाषा मर्यादित ही होनी चाहिए। वक्तव्यों और भाषणों से लाभ उठाना अलग बात है, लेकिन राष्ट्रीय एकता अखंडता और संप्रभुता के प्रश्नों पर कठोर अनुशासन की आवश्यकता है। राजनैतिक अभियानों की आदर्श भाषा से लोकतंत्र की प्रतिष्ठा बढ़ती है। अलग देश की मांग की धमकी किसी भी परिस्थिति में बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए। दक्षिण भारत के सैकड़ों विद्वानों ने राष्ट्रीय एकता के गीत गाए हैं। डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने करोड़ों नौजवानों को प्रेरित किया था। वे देश के राष्ट्रपति रहे। मूलभूत प्रश्न है कि क्या डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम को भी उत्तर दक्षिण की सीमा में विवेचन का विषय बनाया जाए? क्या प्रख्यात शिक्षाविद राजगोपालाचारी को भी दक्षिण तक सीमित कर दिया जाए? क्या शंकराचार्य और रामानुज को भी दक्षिण की सीमा में ही गिना जाए? यह आश्चर्यजनक है कि स्वाधीनता के ७६ वर्ष बाद भी ऐसी आवाजें उठती हैं। देश की राष्ट्रीय एकता का मूल तत्व सांस्कृतिक एकता है। राष्ट्र की अखंड सत्ता न मानने और अलग देश की मांग की धमकी देने की राजनीति कालवाह्य हो चुकी है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के
पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)

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