हृदयनारायण दीक्षित
भारतीय दर्शन तत्व खोजी है। इस तत्व जिज्ञासा के बीज ऋग्वेद में हैं। इस तरह दार्शनिक विकास का पहला चरण ऋग्वेद है। अथर्ववेद में इस दार्शनिक विकास का विस्तार है। अथर्ववेद में वैदिक सभ्यता और सांस्कृतिक विकास के सांसारिक विवरण भी हैं। मानवीय संबंधों का सुंदर दर्शन दिग्दर्शन है अथर्ववेद। इसमें समाज गठन और विकास के पूर्ववर्ती चरणों का विवरण भी है। राष्ट्र नाम की संस्था के जन्म विकास का क्रमबद्ध इतिहास भी है। ऋग्वेद विश्व ज्ञान का प्राचीनतम कोष है तो अथर्ववेद परवर्ती ज्ञान विज्ञान का विश्वकोष। यह प्राचीन मानव सभ्यता का दर्पण है। इसकी रचना भारत में भारतीय पूर्वजों ने की थी। स्वाभाविक है इसमें तत्कालीन भारतीय देश काल की उपस्थिति है। भारतीय मन का उल्लास और तात्कालिक समाज की अनुभूतियां भी हैं। अथर्ववेद में तत्कालीन समाज की अभिलाषाएं हैं। रीति, नीति और संसार की प्रीति है। तत्कालीन समाज के विश्वास हैं। इसमें दर्शन है। विज्ञान है। समाज शास्त्र है। राज व्यवस्था हैै। राज व्यवस्था के कर्त्तव्य हैं। इसमें प्रत्यक्ष भौतिक जगत की सुख साधना के सूत्र हैं और अव्यक्त लोक की जिज्ञासा भी है।
मानव सभ्यता का क्रमिक विकास हुआ है। ऋग्वेद के रचनाकाल के पूर्वकाल का विवरण उपलब्ध नहीं है। इस पूर्वकाल के संकेत ऋग्वेद में हैं। ऋग्वैदिक काल का समाज सभ्यता संस्कृति और दर्शन के दृष्टिकोण में पिछड़ा समाज नहीं है। ऋग्वेद में विकसित समाज के सभी लक्षण हैं तो भी यह विकासशील अवस्था में है। इसलिए ऋग्वेद में सुंदर समाज के स्वप्न हैं। अथर्ववेद का विकसित समाज इसी सांस्कृतिक निरंतरता में है। सभ्यता की निरंतरता के अध्ययन में अथर्ववेद का विशेष महत्व है। ‘संस्कृत साहित्य का इतिहास’ में लिखा है, ‘सभ्यता के इतिवृत्त के अध्ययन के लिए ऋग्वेद की अपेक्षा अथर्ववेद में उपलब्ध सामग्री कहीं अधिक रोचक व महत्वपूर्ण है।’ अथर्ववेद की सभ्यता का काल संस्कृति व दर्शन के विकास का परवर्ती सोपान है। जयंत भट्ट ने न्याय मंजरी में लिखा है, ‘चारों वेदों में यह सर्वोत्कृष्ट है। यह सर्वकार्य साधक है। सार्वलौकिक है, सार्वजनीन है। सर्वप्रथम है।’ डॉ. कपिल देव द्विवेदी ने ‘वैदिक साहित्य एवं संस्कृति’ (पृष्ठ ९६) में अथर्ववेद को ‘जनता का वेद बताया है।’ बिल्कुल सही कहा है। इसमें ब्रह्मांड के रहस्यों की जिज्ञासा है, साथ में साधारण मनुष्य के राग-द्वेष सुख-दुख भी हैं।
अथर्ववेद में जीवन के सभी पक्ष हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद में वैज्ञानिक विषयों का भी दर्शन है। सामवेद गीत प्रधान है, लेकिन अथर्ववेद में उपलब्ध विज्ञान की व्यवहार पद्धति भी है। अथर्व के ऋषि संसार को सुखमय बनाना चाहते थे। उन्होंने सुख और आनंद प्राप्ति के अनेक स्रोतों व उपकरणों का उल्लेख किया है। जीवन को आनंदवर्धक बनाने के लक्ष्य से ‘यज्ञ’ नाम की संस्था का विकास ऋग्वैदिक काल में ही हो गया था। यज्ञ, ज्ञान, विज्ञान से जुड़े लोक उत्सव थे। यज्ञ में गोष्ठियां थीं। तमाम विषयों पर विमर्श थे। यज्ञ कर्म के संपादन की सुनिश्चित विधि थी। यज्ञ के लिए चार ऋत्विज आवश्यक हैं। इनमें अथर्ववेद का ज्ञानी ऋत्विज ही ब्रह्मा या प्रथम प्रमुख बताया गया है। यह ब्रह्मा ही यज्ञ कर्म का अध्यक्ष होता। गोपथ ब्राह्मण के अनुसार, अथर्ववेद के अलावा अन्य तीन वेदों के द्वारा यज्ञ के एक पक्ष का संस्कार कार्य होता था, लेकिन ब्रह्मा-अथर्ववेद का विशेषज्ञ मानसिक पक्ष द्वारा यज्ञ कार्रवाई को पूर्ण करता था। आचार्य श्री राम शर्मा ने ऐतरेय ब्राह्मण के उद्धरण के साथ लिखा है ‘यज्ञ संपादन के दो मार्ग हैं-वाक् और मन।’ तीन वेदों से वाक् या वाणी द्वारा मंत्र उच्चार फिर अथर्ववेद से मन: संस्कार।
वैदिक साहित्य में अथर्वा महत्वपूर्व ऋषि हैं। अथर्ववेद में ऋषि अथर्वा व उनके वंशजों के गाए १,७७२ मंत्र हैं। संभवत: इसीलिए इसका नाम अथर्ववेद पड़ा। प्रो. ब्लूम फील्ड व विंटरनिटज ने अथर्ववेद का नाम अथर्व आंगिरस वेद बताया है। इरानी ‘अवेस्ता’ का अथ्रवन शब्द अथर्वा जैसा है। अवेस्ता के अथ्रवन का मूल अर्थ अग्नि, उपासक, पुरोहित है। अथ्रवन जादू आदि का काम भी करता था।
अथर्वन् का शाब्दिक अर्थ है निश्चल, स्थिर। यास्क की ‘निरूक्त’ के अनुसार, थर्व गति अर्थक है और अथर्वन् गतिहीन स्थिर। अथर्वा का अर्थ योगसिद्ध भी होता है। ईरानी ‘अवेस्ता’ में आया अथ्रवन् अथर्ववेद के अथर्वन का ही विकास हो सकता है। जो भी हो अथर्वा एक मस्त, दार्शनिक ऋषि कवि जान पड़ते हैं। अथर्ववेद के अंतरप्रवाह में बहना और सत्रस का आस्वाद अनुभूति का विषय है, बतरस का नहीं। काया की दृष्टि से अथर्ववेद में ५,९८७ मंत्र हैं और २० काण्ड या अध्याय। २०वें काण्ड के अधिकांश मंत्र ऋग्वेद के हैं। अथर्ववेद में ऋग्वेद के लगभग १,२०० मंत्रों को सम्मिलित किया गया है, लेकिन ऐसी जानकारी का बहुत मतलब नहीं है। ऋग्वेद में जलप्रलय का उल्लेख नहीं है, अथर्ववेद में इसके स्पष्ट संकेत हैं। इसका संकेत है कि अथर्ववेद जलप्लावन के बाद की रचना है। पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करना भी अथर्ववेद के रचनाकारों को ज्ञात था। अथर्ववेद में पृथ्वी, आकाश और मनुष्य जीवन की तमाम बहिरंग अंतरंग समस्याओं का उल्लेख है। इसका असली आनंद पढ़ने और गुनगुनाने में ही मिल सकता है। अथर्ववेद के सौंदर्यबोध की गहराई की थाह वैसे भी नहीं मिलती। अथर्व का सौंदर्यबोध न्यारा है। यहां अनुभूति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को गलबहियां डाले देखा जा सकता है। तब अथर्ववेद के ऋषियों व कवियों को सहज ही नमन करने का भाव जागता है। अथर्ववेद जर्मनी में भी लोकप्रिय है। प्रो. ल्यूडविग ने जर्मन भाषा में इसका अनुवाद किया। भारत में श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने इसका सुंदर भाष्य किया है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने सरल हिंदी में अथर्ववेद का अनुवाद किया है। आर्य साहित्य मंडल अजमेर से प्रकाशित जयदेव विद्यालंकार का भाष्य भी पठनीय है। अथर्ववेद गर्व करने लायक भारतीय काव्य का शिखर है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के
पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)