अरुण कुमार गुप्ता
देश के रणनीतिक हितों को आगे बढ़ाते हुए वैश्विक चुनौतियों का सफलता से समाधान ही किसी भी देश की सफल विदेश नीति कही जा सकती है। वर्तमान समय में विश्व के विभिन्न घटनाक्रमों ने भारतीय विदेश नीति के समक्ष काफी कठिन चुनौतियों को प्रकट किया है। इनमें ईरान तेल संकट, अमेरिकी द्विपक्षीय व्यापार तथा चीन की मुखर होती नीति प्रमुख हैं। इसके अलावा पड़ोसी मुल्कों पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और अब मालदीव भी भारत के सामने चुनौती बनकर उभरे हैं। मोदी सरकार के १० साल के कार्यकाल में इन पड़ोसी मुल्कों से रिश्ते सुधरने की बजाय बिगड़े ही हैं। पाकिस्तान से तो पहले से ही सीमा विवाद चल रहा है। इन चुनौतियों के कारण भारतीय हितों को वैश्विक स्तर पर साधने में समस्या का सामना करना पड़ रहा है। भारत का लोकतंत्र, गरीबी, महिलाओं के खिलाफ भेदभाव, जातिवाद, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार, राजनीति के अपराधीकरण और हिंसा आदि चुनौतियों का सामना कर रहा है।
तेजी से बदलते वैश्विक परिदृश्य में भारत की कई चुनौतियों में सीमा विवाद प्रमुख चुनौती है। भारत का चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों के साथ लंबे समय से सीमा विवाद चल रहा है। इन विवादों के कारण कभी-कभी तनाव और संघर्ष होता है, जिसके लिए शांतिपूर्ण समाधान खोजने के लिए राजनयिक प्रयासों की आवश्यकता होती है। चीन की बढ़ती आर्थिक और सैन्य शक्ति एक जटिल चुनौती प्रस्तुत कर रही है। भारत को चीन के साथ अपने संबंधों को प्रबंधित करने, रणनीतिक चिंताओं के साथ आर्थिक हितों को संतुलित करने के साथ-साथ क्षेत्रीय विवादों को भी संबोधित करने की आवश्यकता है। इसके अलावा क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता भी चुनौती बनकर भारत के सामने है। नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश सहित पड़ोसी देशों के साथ भारत के रिश्ते सुधारना काफी अहम है। लेकिन ऐतिहासिक और राजनीतिक कारकों को देखते हुए क्षेत्र में स्थिर और सहयोगात्मक संबंध बनाए रखना एक चुनौती है। भारत की विदेश नीति आर्थिक असमानता से भी जूझ रही है। भारत के भीतर आर्थिक असमानताओं को संबोधित करना विदेश नीति के लिए आवश्यक है। आर्थिक असमानता सामाजिक अशांति का कारण बन सकती है और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि को प्रभावित कर सकती है, लेकिन भारत की विदेश नीति इस दिशा में काफी लाचार नजर आती है।
भारत की सुरक्षा वातावरण जटिल बना हुआ है, उन कारकों के लिए नहीं जो अलग-अलग देशों के नियंत्रण में नहीं हैं। चीन और पाकिस्तान के साथ अस्थिर सीमा मुद्दे दैनिक आधार पर तनाव में रहते हैं। अफगानिस्तान में अंतर्राष्ट्रीय सैनिकों की वापसी के बाद अनिश्चितता का माहौल है। नेपाल भी राजनीतिक रूप से अस्थिर बना हुआ है और मालदीव में अशांति बढ़ रही है। श्रीलंका ने एक निर्णायक राष्ट्रपति पद के चुनाव में और एक दोस्ताना राष्ट्रपति के साथ जीत हासिल की है, लेकिन तमिल मुद्दा अभी भी अस्थिर है। बांग्लादेश लगभग एक सतत आधार पर एक आंतरिक राजनीतिक टकराव में बंद है। म्यांमार में अभी भी सेना से लोकतांत्रिक सरकार के साथ एक अनिश्चित और असहज संक्रमण हो रहा है। समुद्री तरफ, भारत की बढ़ती पहुंच का अर्थ एक बार भौगोलिक दृष्टि से दूर समस्याएं अब घर के करीब दिखाई देती हैं-चाहे वे उत्तरी अरब सागर, दक्षिण चीन सागर, पूर्वी चीन सागर और प्रशांत जबकि हिंद महासागर, संभावित एक तनाव की अवधि में प्रवेश कर रहा है। प्रवासी भारतीय दुनिया भर में पैâले हैं, लेकिन विशेष रूप से मध्य-पूर्व में जो महत्वपूर्ण ऊर्जा आपूर्ति का एक स्रोत हैं, विदेशी नीति निर्माताओं को सूक्ष्म रूप से दुनिया भर के विकास घटनाक्रम का पालन करना जरूरी है।
बहुपक्षीय कूटनीति के मामले में संयुक्त राष्ट्र और जी-२० सहित अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भारत की भूमिका के लिए उसे वैश्विक प्राथमिकताओं के साथ अपने हितों को संतुलित करने और जटिल बहुपक्षीय वार्ताओं को नेविगेट करने की आवश्यकता है। फिलहाल, हम यह कर सकते हैं कि विदेश मंत्री के तौर पर एस. जयशंकर भले ही सफल होने का दावा करें, लेकिन उपरोक्त तमाम चुनौतियों के साथ पड़ोसी मुल्कों के रवैए में जब तक बदलाव या यूं कहें सहयोग, सकारात्मक का भाव नहीं आता है, तब तक देश को चुनौतियों से पार पाना मुश्किल है। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि भारत की विदेश नीति में एस. `जय’ शंकर की `पराजय’ है।