मुख्यपृष्ठस्तंभमध्यांतर : अतिवादी प्रचार ने भाजपा को हराया

मध्यांतर : अतिवादी प्रचार ने भाजपा को हराया

प्रमोद भार्गव
शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

१८वीं लोकसभा चुनाव के आए परिणामों के बाद स्थिति साफ हो गई। ६४ करोड़ २ लाख मतदाताओं ने अपने अमूल मत से अपना प्रतिनिधि चुन लिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जाति और मजहब को हवा देकर ४०० पार जाने का दंभ भरा था, लेकिन मतदाता ने ऐड़ लगाकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को २९२ सीटों पर सिमटाकर जता दिया कि अंतत: लोकतंत्र में जीत या हार का आधार जागरूक मतदाता ही हैं। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ और निष्पक्षता का दंभ भरने वाले समाचार चैनलों ने एग्जिट पोल में भाजपा को ३०० और राजग को ४०० पार करा दिया था। लेकिन चुनाव नतीजों ने साफ कर दिया कि वास्तविक परिणामों को कुछ हजार मतदाताओं से बात करके कदापि निर्णय को नहीं जाना जा सकता है। अतएव परिणाम पूर्व समाचार चैनलों द्वारा कराए गए अनुमानित सर्वेक्षण धराशायी दिखाई दिए हैं। जिस इंडिया गठबंधन को बहुत पीछे बताया जा रहा था, उसने २३४ सीटें जीती हैं। खासतौर से उत्तर प्रदेश में भाजपा को बड़ा झटका लगा है। यहां हिंदू मतों को नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने जिस तरह से ध्रुवीकृत किया, वह उत्तर प्रदेश में भाजपा को उल्टा पड़ता दिखाई दिया है। यहां तक कि भाजपा अयोध्या से भी चुनाव हार गई। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा ने दिसंबर २०२३ में नए मुख्यमंत्रियों का चयन जातिगत आधार पर बहुत सोच-समझकर किया था, इसका उसे लाभ नहीं मिला।
मध्य प्रदेश में मोहन यादव को इसलिए मुख्यमंत्री बनाया गया था, जिससे उत्तर प्रदेश और बिहार के यादव मतदाताओं को साधा जा सके। लेकिन उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने यादव, मुसलमान और बहुजन समाज पार्टी के वोट लेकर अपनी स्थिति मजबूत कर ली। इंडिया गठबंधन का सहयोगी दल होने का लाभ अखिलेश को मिला। नतीजतन उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म की राजनीति भाजपा के काम नहीं आई। अतएव ८० में से करीब ३७ सीटें समाजवादी पार्टी के खाते में, ३३ भाजपा के, ७ कांग्रेस के और दो राष्ट्रीय लोकदल के खाते में चली गईं। ये भाजपा के लिए बड़ा झटका है, क्योंकि राम मंदिर निर्माण के चलते माना जा रहा था कि सभी जातियों का वोट भाजपा को मिलेगा और वह अधिकतम सीटें जीत जाएगी। लेकिन जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण सपा के पक्ष में चला गया। भाजपा के पास मौजूदा वक्त में राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार में कोई प्रमुख यादव नेता नहीं है, गोया, इस नाम के सहारे इन राज्यों में जो बंसी बजाने का उपाय किया था, वह बज ही नहीं पाई। चूंकि छत्तीसगढ़ में आदिवासी विष्णुदेव को मुख्यमंत्री बना दिया गया था इसलिए मध्य प्रदेश में फिर से ओबीसी कार्ड खेलना शिखर नेतृत्व को ऐसा लग रहा था कि यह कार्ड उत्तर प्रदेश और बिहार में भी चल जाएगा। मध्य प्रदेश में केंद्रीय नेतृत्व ने मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाकर यह संदेश देने की कोशिश की थी कि उत्तर प्रदेश और बिहार के यादवों को यह संदेश पहुंच जाएगा कि भाजपा का साथ दिया तो मोहन यादव जैसे साधारण कार्यकर्ता की तरह इन राज्यों में भी भाजपा बहुमत में आती है तो यादवी मुख्यमंत्री बनाने का कार्ड खेल सकती है, लेकिन उत्तर प्रदेश के यादवों में भाजपा मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा जगा नहीं पाई। दरअसल, मोहन यादव के चेहरे को महत्व देकर भाजपा ने उत्तर प्रदेश की पिछड़े वर्ग की ५४ प्रतिशत आबादी को साधने की कोशिश की थी। इसमें २० प्रतिशत यादव समाज के मतदाता हैं। उत्तर प्रदेश में लोकसभा की ८० सीटे हैं और प्रधानमंत्री बनने का मार्ग यहीं से खुलता है। बिहार में लोकसभा की ४० सीटे हैं। यहां पिछड़े वर्ग की कुल आबादी ६३ प्रतिशत है, जिसमें १४ प्रतिशत यादव बताए जाते हैं। अतएव मोहन यादव के माध्यम से यादव मतदाताओं को साधने की यह कवायद आम चुनाव में भाजपा को लाभदायी साबित होने की उम्मीद थी, जिस पर परिणाम आने के बाद पानी फिर गया।
राजस्थान में ब्राह्मण चेहरे के रूप में भजनलाल शर्मा को मुख्यमंत्री बनाया गया था, जिससे राजस्थान में ब्राह्मणों समेत अन्य सवर्ण समाज के मतदाताओं का मत भाजपा की झोली में चला जाए, लेकिन ऐसा पूरी तरह हो नहीं पाया। भाजपा को राजस्थान में १४ और कांग्रेस को ८ सीटों पर विजय मिली है। तीन सीटें अन्य दल ले गए। कांग्रेस के लिए यह बड़ी सफलता है। क्योंकि सात माह पहले ही कांग्रेस को राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार गंवानी पड़ी थी। हालांकि, राजस्थान में मुख्यमंत्री बनने की असली हकदार वसुंधरा राजे सिंधिया थीं, उन्हें किनारा करके भजनलाल के माथे पर मुख्यमंत्री पद का आदेश चस्पां कर दिया था। संभव है, वसुंधरा ने अपनी ताकत दिखाने के नजरिए से भाजपा को नुकसान पहुंचाने का काम किया हो? अन्यथा राजस्थान में भाजपा लोकसभा की सभी सीटें जीतती रही है।
मध्य प्रदेश में सभी २९ सीटों पर भाजपा ने कब्जा कर लिया है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के पुत्र नकुलनाथ चुनाव हार गए हैं। इंदौर में कांग्रेस उम्मीदवार अक्षय कांति बम ने नाटकीय ढंग से अंतिम दिन अपना पर्चा वापस लेकर भाजपा का दामन थाम लिया था। गोया, कांग्रेस का प्रत्याशी ही इंदौर लोवâसभा सीट पर नहीं रह गया था। जाति और धर्म की राजनीति की तरह यह नाटकीय घटनाक्रम भी इंदौर के मतदाताओं को भाया नहीं और इंदौर के जागरूक मतदाताओं ने अपनी नाराजगी जताते हुए २ लाख से भी ज्यादा वोट नोटा को दिए। नोटा को मिलने वाले देश में ये सबसे ज्यादा वोट हैं। इंदौर से भाजपा के प्रत्याशी शंकर लालवानी को करीब ११ लाख मतों से जीत मिली है, जो देश में सबसे बड़ी जीत है। लेकिन इस तरह से कांग्रेस प्रत्याशी पर दबाव बनाकर पर्चा वापस कराना लोकतंत्र के लिए हितकारी नहीं है।
मध्य प्रदेश में भाजपा ने जो सभी सीटें जीती हैं, उसमें न तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह का कोई करिश्मा काम आया है और न ही मोहन यादव ने कोई चमत्कार दिखाया है। यहां की विजय का श्रेय पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी लाडली बहनों को जाता है। इसीलिए शिवराज सिंह चौहान करीब ८ लाख ४० हजार मतों से विदिशा लोकसभा सीट से जीत दर्ज कराई है। बहरहाल, मतदाता ने इस चुनाव में हर प्रकार के अतिवाद को नकारा है। धर्म और जाति की आक्रामकता ने उत्तर प्रदेश में नुकसान पहुंचाया, कमोबेश वैसा ही राजस्थान और हरियाणा में परिणाम आए हैं। अतएव देश के नेताओं को यह चुनाव एक सबक है कि वे संतुलन और समन्वय की राजनीति से पेश आएं, वरना परिणाम भुगतने को तैयार रहें।
(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)

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