सैयद सलमान
मुंबई
मुसलमानों के लिए अक्सर व्यंग्यात्मक लहजे में कहा जाता है कि यह कौम या तो पंक्चर बनाने के लिए पैदा हुई है या दरी बिछाने-उठाने के लिए। शायद उनके लिए यह जवाब है कि जिन्होंने दरी नहीं, किताबें उठार्इं वे देश के मुस्तकबिल का हिस्सा बन रहे हैं। उन्हें उनकी मेहनत ने सफलता दिलाई है। पंक्चर बनाना भी क्योंकर बुरा है, वह भी तो मेहनत का काम है, लेकिन जैसे हर विद्यार्थी आईएएस या आईपीएस नहीं बन सकता, वैसे ही हर मुसलमान पंक्चर बनाने के लिए नहीं पैदा हुआ, वह और भी मेहनत करने वाले काम कर सकता है, करता है।
इस सप्ताह संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने सिविल सेवा परीक्षा २०२३ के नतीजे घोषित किए। इन नतीजों का मूल्यांकन मुस्लिम समुदाय सहित पूरे देश में शुरू हुआ। हैरानी की बात यह है कि इस साल ५१ मुस्लिम उम्मीदवारों ने यूपीएससी परीक्षा पास कर एक नया इतिहास रच दिया। इनमें से ५ ऐसे हैं, जिन्होंने ‘टॉप १००’ में जगह बनाई है। ‘टॉप १०’ में तो एक मुस्लिम महिला भी शामिल है, जबकि यह माना जाता रहा है कि मुसलमानों में महिला शिक्षण पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता। अब तक यह धारणा थी कि आजादी के ७५ साल बाद भी मुस्लिम समाज शैक्षणिक रूप से बेहद पिछड़ा है और देश में प्रभावशाली पदों पर उसकी मौजूदगी लगभग नगण्य है। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट भी यही कह रही थी। देश में मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन का पता लगाने के लिए २००५ में न्यायमूर्ति राजेंद्र सच्चर के नेतृत्व में सच्चर कमिटी बनाई गई थी। नवंबर २००६ में सच्चर कमिटी ने लोकसभा में पेश की गई अपनी ४०३ पन्नों की रिपोर्ट में कहा था कि मुस्लिम समुदाय की हालत अनुसूचित जाति और जनजाति से भी खराब है। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई थी कि २००६ में प्रशासनिक सेवाओं में मुसलमानों की भागीदारी बेहद कम थी। उस समय देश में केवल ३ प्रतिशत आईएएस और ४ प्रतिशत आईपीएस मुस्लिम थे। इसके साथ ही पुलिस बल में मुसलमानों की हिस्सेदारी महज ७.६३ प्रतिशत थी, जबकि केंद्र सरकार के अधीन रेलवे में यह महज ४.५ प्रतिशत थी। उस समय कुल सरकारी नौकरियों में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व मात्र ४.९ प्रतिशत था। ऐसे में अचानक पिछले कुछ वर्षों में मुस्लिम युवाओं में यूपीएससी जैसी परीक्षाओं की तैयारी करने और उसमें सफलता प्राप्त करने की प्रवृत्ति बढ़ी है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।
मुस्लिम वैंâडिडेट्स का चयन देखकर यह चर्चा भी शुरू हो गई है कि क्या यह मुसलमानों में बदलाव की शुरुआत है? लगता तो यही है। यूपीएससी-सीएसई में मुस्लिम छात्रों का वार्षिक चयन पिछले वर्षों के मुकाबले बढ़ा है। यह संख्या २०२१ में २५, २०२२ में २९ और २०२३ में सीधे ५१ पर पहुंच गई है। एक तरफ मुसलमान राजनीति में किनारे लगाया जा रहा है तो दूसरी तरफ वह शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने की सोच रहा है। राजनीति में मुसलमानों को टिकट न देकर नजरअंदाज किया जा सकता है, लेकिन परीक्षा में चयनित होने से भला उन्हें कौन रोक सकता है। यूपीएससी परीक्षा के लिए परिवार की जद्दोजहद लगती है। मुश्किल परिस्थितियों से ‘जिहाद’ करना पड़ता है। आईटी सेल की झूठ से गढ़ी गई मशीन और झूठे प्रचार से सरकारें तो बन-बिगड़ सकती हैं, लेकिन अधिकारी नहीं बना सकते। उसके लिए लगन और शिक्षा के प्रति समर्पण की जरूरत होती है, उसके लिए परीक्षा पास करनी होती है। मुसलमानों को केवल धार्मिक उन्माद पैâलाने की ट्रेनिंग देने की बातें फिजूल हैं, उससे यूपीएससी की परीक्षा पास करना नामुमकिन है। घरों में या नजदीकी मदरसों में अरबी सीखने-पढ़ने के लिए जाते बच्चों को किसी प्रकार के धर्मिक उन्माद की ट्रेनिंग नहीं दी जाती। रोजी-रोजगार और राष्ट्रीयता ज्यादा महत्वपूर्ण है।
मुसलमानों के लिए अक्सर व्यंग्यात्मक लहजे में कहा जाता है कि यह कौम या तो पंक्चर बनाने के लिए पैदा हुई है या दरी बिछाने-उठाने के लिए। शायद उनके लिए यह जवाब है कि जिन्होंने दरी नहीं, किताबें उठार्इं वे देश के मुस्तकबिल का हिस्सा बन रहे हैं। उन्हें उनकी मेहनत ने सफलता दिलाई है। पंक्चर बनाना भी क्योंकर बुरा है, वह भी तो मेहनत का काम है, लेकिन जैसे हर विद्यार्थी आईएएस या आईपीएस नहीं बन सकता, वैसे ही हर मुसलमान पंक्चर बनाने के लिए नहीं पैदा हुआ, वह और भी मेहनत करने वाले काम कर सकता है, करता है। बस उसके साथ देशद्रोही, धार्मिक उन्मादी, आतंकी, जिहादी जैसा टैग न लगाया जाए। यहीं आकर वह टूट जाता है। उसे लगने लगता है कि इस देश में उसके साथ दोयम दर्जे के नागरिक जैसा व्यवहार हो रहा है। वह अपने आपको देश की मुख्यधारा से जोड़ना चाहता है, लेकिन उसे मार्ग नहीं सूझता। वह फिरकों में बंटे मौलवियों और कौम के स्वार्थी नेताओं के इर्द-गिर्द अपना ठिकाना तलाशता है। शुक्र है नई पीढ़ी ने उस राह से अलग अपने लिए शिक्षा की राह चुन ली है। वही राह जो कुरआन और इस्लाम ने बताई है। कुरआन नुजूल की पहली आयत ही ‘इकरा’ है यानी पढ़। पढ़ का तअल्लुक ही शिक्षा से है और नई पीढ़ी उस ओर ध्यान दे रही है। नई पीढ़ी समाज के हर तबके को यह संदेश दे रही है कि ‘दरी बिछाने-उठाने से बेहतर है, शिक्षा ग्रहण करो, आईएएस-आईपीएस बनो और अपना हक प्राप्त करो।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)