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इस्लाम की बात: सम्मान, मुसलमान और विवेकपूर्ण मतदान

सैयद सलमान मुंबई

महाराष्ट्र में पांचवें चरण का मतदान २० मई २०२४ को संपन्न हुआ। यह चुनाव कई मायनों में दिलचस्प और अहम रहा। पिछले कुछ सालों में देश ही नहीं, महाराष्ट्र की राजनीति भी काफी उथल-पुथल भरी रही। पार्टियां टूटीं और बनीं, नए राजनीतिक गठबंधन बने, कोविड जैसी महामारी में देश की सर्वोत्तम चल रही सरकारों में से एक महाराष्ट्र की सरकार को आखिर गद्दारी करवाकर गिरा दिया गया। केंद्र के इशारे पर महाराष्ट्र में एक तरह से राजनीतिक अराजकता का निर्माण किया गया। फिलहाल, शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस दो गुटों में बंटे हुए हैं। जिन्होंने इन पार्टियों के साथ गद्दारी की, वो सरकार में शामिल हैं और सबसे बड़े दल का नेता उपमुख्यमंत्री बनकर भी खुश है। इस लाचारी को भी महाराष्ट्र ने देखा। सबकी समझ में आ गया कि यह सरकार स्वार्थ की सरकार है। ऐसे में मुसलमानों के मन में भी वही भावनाएं जागृत हुर्इं, जो आम महाराष्ट्र की जनता की थी। मुस्लिम समुदाय ने इंडिया एलायंस में शामिल शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) पक्ष के प्रति सहानुभूति व्यक्त की, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि वे भी आम मराठी भाषियों की तरह उसे ही असली शिवसेना मानते हैं। यही इस चुनाव का टर्निंग पॉइंट था, जब शिवसेना से दूर रहने वाले मुसलमानों ने शिवसेना को खुले दिल से स्वीकार किया। यह शिवसेना नेतृत्व की सुलझी हुई भूमिका के प्रति उनका समर्पण था। मुस्लिम समुदाय संविधान को बचाने, अपने सम्मान की रक्षा और लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति विशेष रूप से गंभीर था। उसने इसे प्राथमिकता देते हुए इंडिया अलायंस को वोट दिया।

शिवसेना ने हिंदुत्व को नहीं छोड़ा है। इसके बावजूद मुसलमानों ने शिवसेना का साथ दिया, क्योंकि उनकी समझ में आ गया कि शिवसेना का हिंदुत्व सर्व समावेशी है। उसमें मुसलमानों के प्रति घृणा नहीं है। हां, उन कट्टरपंथी मुसलमानों से उन्हें बैर हो सकता है, जिन्हें महाराष्ट्र व देश से प्रेम नहीं है और वे यहां का खाकर अन्य देशों का गुणगान करें या फिर दूसरे मजहब के देवी-देवताओं के प्रति अनादर का भाव रखें। ऐसे मुसलमानों से तो वो मुसलमान भी चिढ़ता है, जो राष्ट्रप्रेमी है। जो अन्य मजहबों का और उनके आराध्यों का सम्मान करता है और दूध में शक्कर की तरह मिल जाने की भांति हमवतन भाइयों के साथ मिलजुल कर रहता है। जो धर्म को अपने घर की सीमा तक सीमित रखता है और सामाजिक जीवन में राष्ट्रवाद को प्रमुखता देता है। हालांकि, यह जानना रोचक है कि शिवसेना ने किसी मुसलमान को टिकट नहीं दिया, फिर भी मुसलमान दिल से उसके साथ रहा, क्योंकि उसे इतनी राजनीतिक समझ है कि शिवसेना की टिकट देने की अपनी सीमा और शैली है। मुसलमानों को इससे शिकायत भी नहीं है। उन्हें सुरक्षा चाहिए, जो शिवसेना से मिल सकती है, लेकिन मुसलमानों को कांग्रेस से जरूर शिकायत रही। मुसलमानों का जिक्र करना, उनके वोटों की चिंता करना, लेकिन मुसलमानों को प्रतिनिधित्व न देना या कम करना मुसलमानों की नाराजगी का कारण रहा। देश की ११ बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने अपने १,४९० उम्मीदवार उतारे, लेकिन उनमें से मात्र ७८ मुसलमानों को टिकट दिया गया। इससे पता चलता है कि मुसलमानों का उचित प्रतिनिधित्व किसी भी पार्टी के एजेंडे में नहीं था। जहां मुसलमानों की वकालत करने के लिए बदनाम सपा और राजद जैसी पार्टियों ने भी उन्हें दरकिनार किया, वहीं कांग्रेस ने भी केवल १९ सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारे। महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश जैसे ५ महत्वपूर्ण राज्यों में इंडिया गठबंधन का एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं था। इसके बावजूद मुसलमान सांप्रदायिक शक्तियों को हराने के लिए इंडिया गठबंधन के साथ मजबूती से खड़ा रहा।

हालांकि, मुसलमान नामधारी भी कई पार्टियां हैं, लेकिन उनमें इतनी ताकत नहीं है कि वे अपने दम पर या किसी के साथ मिलकर अपनी सरकार बना सकें। इसीलिए मुसलमान उनके साथ इक्का-दुक्का सीटों को छोड़कर अपनी सुरक्षा देखते हुए मतदान करता है। सबसे महत्वपूर्ण बात, अब पहले की तरह कोई भी धार्मिक संगठन उनके वोट को प्रभावित नहीं कर पाता। भले ही उम्मीदवार मुस्लिम न हो, लेकिन अगर धर्मनिरपेक्ष विचार रखता है तो मुसलमान उसी के साथ हो लेता है। वह हमेशा यह सुनिश्चित करता है कि मुस्लिम वोट विभाजित न होने पाए। मुस्लिम-बहुल इलाकों में मुस्लिम वोटों का बंटवारा स्वाभाविक रूप से सांप्रदायिक शक्तियों के उम्मीदवार की सफलता का कारण बनता है। सच्चे लोकतंत्र की खूबसूरती यही है कि अपने जनप्रतिनिधि का चयन उसके काम, छवि और विचारधारा के आधार पर किया जाए, न कि किसी विशेष जाति या धर्म के आधार पर। इसी तरह चुनाव मूलभूत समस्याओं, राज्यवार अस्मिता और राष्ट्रीय मुद्दों पर होने चाहिए, न कि संकीर्ण विचारधारा के आधार पर। ऐसे में इस बार विवेकपूर्ण तरीके से डाला गया मुस्लिम वोट काफी हद तक निर्णायक हो सकता है।

(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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