सैयद सलमान मुंबई
भाजपा का दांव
९ अप्रैल, २०२५ की तारीख भारतीय संसद के इतिहास में एक और विवादास्पद अध्याय के रूप में दर्ज हो चुकी है। हाल ही में संसद के दोनों सदनों से पारित कर राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद लागू किया गया वक्फ संशोधन कानून २०२५, देश के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में एक नए विवाद का केंद्र बन गया है। यह कानून, जिसे सरकार ने ‘उम्मीद’ (यूनिफाइड वक्फ मैनेजमेंट एंपावरमेंट, एफिशिएंसी एंड डेवलपमेंट) नाम दिया है, वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन में पारदर्शिता और सुधार लाने का दावा करता है। हालांकि, इसके लागू होने के साथ ही देशभर में मुस्लिम समुदाय के बीच विरोध का स्वर तेज हो गया है और मामला अब सुप्रीम कोर्ट की चौखट तक पहुंच चुका है। सरकार ने दावा किया कि यह कानून वक्फ संपत्तियों के कुप्रबंधन और दुरुपयोग को रोकने के लिए जरूरी है, जिसमें गैर-मुस्लिम सदस्यों को वक्फ बोर्ड में शामिल करना और कलेक्टर को संपत्तियों के सर्वे का अधिकार देना जैसे प्रावधान शामिल हैं। भाजपा समर्थक जहां इसका स्वागत कर रहे हैं, वहीं मुस्लिम समाज में इसे लेकर चिंता और असंतोष का माहौल व्याप्त है।
इस कानून के लागू होने के बाद, ६ से १२ अप्रैल तक ‘अवकाफ सप्ताह’ मनाने की घोषणा की गई, जिसका उद्देश्य लोगों को इसके लाभों के बारे में जागरूक करना था, लेकिन यह सप्ताह विरोध प्रदर्शनों का गवाह बन गया। देश के कई हिस्सों, खासकर पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में मुस्लिम संगठनों ने सड़कों पर उतरकर अपना गुस्सा जाहिर किया। मुस्लिम समाज का विरोध इस कानून के कई प्रावधानों पर केंद्रित है। पहला, वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति को लेकर सवाल उठ रहे हैं। समुदाय का मानना है कि यह उनकी धार्मिक स्वायत्तता में हस्तक्षेप है। दूसरा, कलेक्टर को वक्फ संपत्तियों के सर्वे का अधिकार देना और सरकारी संपत्तियों को वक्फ से बाहर करने का प्रावधान भी विवाद का कारण बना है। कई मुस्लिम बुद्धिजीवियों का कहना है कि इससे वक्फ बोर्ड की शक्ति कम होगी और सरकार का नियंत्रण बढ़ेगा, जो संविधान के अनुच्छेद २५ और २६ के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।
सुधार के नाम पर!
इस असंतोष ने कानूनी रूप ले लिया है और अब तक सुप्रीम कोर्ट में छह याचिकाएं दाखिल हो चुकी हैं। कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद, एमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी, जमीयत उलमा-ए-हिंद और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया जैसे पक्षों ने इसे चुनौती दी है। यह मामला अब देश की सबसे बड़ी अदालत में विचाराधीन है और इसका पैâसला इस कानून के भविष्य को तय करेगा। भाजपा समर्थक इसे ‘मुस्लिम समाज के लिए सुधार’ का कदम बताते हैं। उनका दावा है कि वक्फ संपत्तियों से होनेवाली आय गरीब मुसलमानों तक पहुंचेगी। हालांकि, इन दावों को मुस्लिम समुदाय के बड़े हिस्से ने खारिज कर दिया है। उनका मानना है कि यह कानून उनकी धार्मिक पहचान और संपत्तियों पर सरकारी कब्जे का एक जरिया है। असदुद्दीन ओवैसी ने तो इसे ‘संविधान पर हमला’ तक करार दिया और लोकसभा में विधेयक को फाड़कर अपना विरोध दर्ज किया।
मुस्लिम समाज में यह चिंता गहरा रही है कि यह कानून न केवल उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को कमजोर करेगा, बल्कि सामाजिक तनाव को भी बढ़ाएगा। कई लोग इसे भाजपा की उस रणनीति का हिस्सा मानते हैं, जो अल्पसंख्यकों को हाशिए पर धकेलने की कोशिश करती है। राहुल गांधी ने भी इसे ‘मुसलमानों को निशाना बनानेवाला हथियार’ बताया और चेतावनी दी कि यह भविष्य में अन्य समुदायों के खिलाफ भी इस्तेमाल हो सकता है। आनेवाले दिनों में यह मुद्दा और पेचीदा हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट का पैâसला इस कानून की वैधता और इसके लागू होने पर निर्णायक होगा। अगर कोर्ट इसे रद्द करता है तो यह विपक्ष और मुस्लिम संगठनों के लिए बड़ी जीत होगी, लेकिन अगर इसे बरकरार रखा जाता है तो विरोध और तीव्र हो सकता है। बिहार जैसे राज्यों में, जहां जदयू के समर्थन के बाद पार्टी के मुस्लिम नेताओं ने इस्तीफे दिए हैं, यह मुद्दा चुनावी राजनीति को प्रभावित कर सकता है। मुस्लिम समाज में यह भावना बलवती हो रही है कि उनकी आवाज को दबाया जा रहा है। ‘अवकाफ सप्ताह’ को जागरूकता का प्रतीक बनना था लेकिन अब वह विरोध और अविश्वास का मंच बन गया है। सरकार के लिए यह चुनौती होगी कि वह इस कानून के जरिए पारदर्शिता के अपने दावे को साबित करे और मुस्लिम समुदाय का भरोसा जीते, लेकिन वर्तमान माहौल को देखते हुए यह आसान नहीं होगा। यह कानून न केवल एक विधायी कदम है, बल्कि देश के सामाजिक ताने-बाने और संवैधानिक मूल्यों की परीक्षा भी है। आने वाला समय ही बताएगा कि यह ‘उम्मीद’ का प्रतीक बनेगा या ‘अविश्वास’ का कारण।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक और देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)