मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : ददा और गुड़ की कठिन कहानी

काहें बिसरा गांव : ददा और गुड़ की कठिन कहानी

पंकज तिवारी

ददा ना-नुकुर करने के बाद भी ऊंख काटने के लिए तैयार हो गए थे। एक बार फिर दादी की बात माननी ही पड़ी थी ददा को। मौसम खफा-खफा और सड़कें भीगी-भीगी सी थीं, धुआं-धुआं दरमियां था तो दबा-दबा अरमान मगर इन सभी के बीच कुछ काम थे, जिन्हें करने ही थे और फिर बात दादी की थी। ददा की मजाल कि ना कर दें। संझा को इनारा पर जब गलचौरा जमा था और बतकही हो रही थी ददा तभी खबर पास कर दिए थे कि ‘काल्हि सवेरे हमार ऊंखि पेराए। अगाव या गेंड़ा जे केहू के चाहेऽ ऊ ऊंखे कऽ पाती छीलइ बदे आइ जाएऽ, सबके स्वागत बाऽ।’
लोग खुश हो उठे थे‌, विधना बुआ तो एकदम से नाच उठी थीं। वैसे भी हरियर खाए से गोरू हरियरान से रहते हैं और इस समय तो और भी आनंद आता है उन्हें। इसी बहाने गोरुअन को हरियर खाने को मिलेगा-रमई सोच रहे थे। बेचारू बेचन महराज रात भर सो ही नहीं पाए थे कि ‘कब सबेर होइ अउर कब पहुंची खेते में, सोच रहे थे कि मांगिलेब ददा से ‘हथौआ’ दुइ-चार ऊंखिउ चूहइ बिना।
सवेरे-सवेरे जब चारों तरफ शीत का प्रकोप था, ओस पर पांव धरते ही जिउ झन्न हो उठ रहा था, ददा गंड़ासा लिए बिना चप्पलै खेत में पहुंच चुके थे‌ और ऊंख काटने में जुट गए थे। पत्तों के शरीर से लगते ही कंपकंपी पैâल जा रही थी। दादी, बाभनपुर वाली काकी, बेचन महराज सभी अगाव छीलने में लगे हुए थे, जबकि ददा धड़ाधड़ ऊंख काटकर गिराए जा रहे थे। आज तो गजबै अचंभा घट गया था, कई दिनों के बाद सूरज देवता खुलकर बाहर आ रहे थे, उनके झांकते ही लोग झांकने लगे थे। ददा सहित सभी के चेहरे खिल उठे। देखते ही देखते ऊंख के कई बोझ बंध गए। कुछ और ऊंख के बदले बेचन महराज ददा के साथ बोझिया मशीन तक पहुंचाने को तैयार हो गए थे और फटाफट ददा के साथ ऊंख पहुंचाने भी लगे थे। दादी भी घर आ गयी थी‌ और अब मशीन की धुलाई कर रही थी। बैल बेचारे ऊंख देखकर परेशान हो रहे थे ‘हाय दइया दुहाई रे दुहाई, अब तो हमारी शामत आई, नधना पड़ेगा रे भाई।’ हंसते हुए दुसरका बैल बोल बैठा, ‘अबे यार, खाने दे मुझे, जो होगा देखा जायेगा।’ ददा बोझा ढोकर खाली हो गए और अब बैल को पानी पिलाने लगे थे। ‘ई वाला पानी तो महंगा है यार’- पहले बैल ने फिर से दूसरे से कहा। बेचारा दूसरा सिर धीरे से घुमा लिया।
कुछ देर बाद बैल नाध दिए गए। दादी मशीन के पास बैठकर ऊंख लगाने लगी थीं, जबकि ददा बैल के साथ गोल-गोल घूम रहे थे। गांव के बच्चे रस पीने की लालसा लिए आस-पास मंडराने लगे थे, बड़े भी ददा का हालचाल लेने आने लगे थे। सोच रहे थे, क्या पता इसी बहाने एकाध गिलास रस पीने को मिल ही जाय या फिर एकाध ऊंख ही। ददा सब समझ रहे थे पर सभी को नहीं कुछ को रस जरूर पिला रहे थे। दही भी पास ही रखे थे ददा। रस और दही मिलाकर पीने से पूरी आत्मा तृप्त हो जाती थी, जिसके नसीब में था उसे मिल ही जा रहा था, बाकी सब हाल-चाल जानकर वैसे ही चले जा रहे थे। पहले पूरे गांव वाले ऊंख की खेती करते थे पर समय के साथ लोग सुकुवार होने लगे थे और ऊंख की खेती कम होती चली गई थी। अब पूरे गांव में इकलौते ददा ही थे जो गुड़ और खांड़ बनाते थे इसलिए इस समय अलग ही रुतबा होता था ददा का गांव भर में। हालांकि, इतना आसान नहीं था गुड़ बनाना, बहुत खटना पड़ता था तब जाकर नसीब होता था गुड़, पर ददा डटे रहते थे। कहा करते थे कि ‘जब तक शरीर चलत बाऽ गुड़ जरूर बनउब’ जुटे रहते थे ददा। साथ में बेचारी दादी को भी परेशान होना पड़ता था। ग्यारह बजते-बजते कराहा चढ़ चुका था। ददा भट्ठा झोंकने बैठ गये थे। कराहे में रखा रस धीरे-धीरे गरम होने लगा था। मही फूटने के कुछ घंटे बाद फूला भी लग चुका था।
क्रमश:
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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