मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : गीत-गवनई के बीच बेहन की रोपाई

काहें बिसरा गांव : गीत-गवनई के बीच बेहन की रोपाई

पंकज तिवारी

‘बरखा रानी बरखा रानी
कब बरसोगी बरखा रानी’
तथा
‘काल कलौती उज्जर धोती
काले मेघा पानी दे’
जैसे गीतों को गाते लोगों के जुबान नहीं थक रहे थे। धान के बेहन को रोपने का समय था। बारिश हो जाती तो भराई नहीं करनी पड़ती। इसी उम्मीद में इंद्र देव को प्रसन्न करने हेतु जितने भी काव्य रचे गए, उनमें से जितनी की भी जानकारी गांव वालों को थी, लगभग सभी को गाकर गांव वाले हार गए थे, पर बारिश का नामोनिशान तक नहीं था। बेहन को उखाड़कर खेत में जमा कर दिया गया था। उधर जिस खेत में रोपाई करनी थी मशीन से पानी भरा जा रहा था। लाखन, हीरा, मजनू सहित करीब बीस लोग धान रोपाई के इस कार्य में लगे हुए थे। कोई बेहन उखाड़ने में तो कोई बेहन को पहुंचाने में लगा हुआ था तो कोई रोपाई कर रहा था। उत्साह उत्सव में आए जैसा लग रहा था। हेंगा से खेत को समतल किया जा चुका था। बैल किनारे बैठे पाग्गुर कर रहे थे। अपने काम को निपटाकर वो मगन थे। घुटनों तक डूबे लोग खेल-खेल कर धान की रोपाई कर रहे थे। महिलाएं गीत-गवनई में मगन थीं, साथ ही धान लगाने का काम भी जारी था। काफी देर बीत गया या कहें कि धान लगाते-लगाते दिन चढ़ आया था, पर चना-चबैना का जुगाड़ नहीं हो सका था। लोग मन ही मन गुस्सा रहे थे, पर बात दादी की थी। बेचारी अकेली दादी वैâसे करती सब कुछ इसलिए कुछ देर बाद लोगों ने दाना-पानी की उम्मीद ही छोड़ दी थी। ददा किसी काम से बेटे के पास मुंबई गए हुए थे। अब तक आ जाना था, पर नहीं आ सके थे, तार भी नहीं आया था कुछ। खैर, कुछ देर और बीता ही था कि दादी दौरा में चना और लाई लेकर आती दिख गईं। झब्बर साथ में ही था बाल्टी भर कर रस लिए चला आ रहा था। सभी के चेहरे खिल उठे। देखते ही खेत के बाहर बबूल तले झुंड बनाकर बैठ गए लोग। हाथ धुल कर लोग दाना और रस करने लगे। मिट्टी में सने होने के बावजूद खुश मन से लोगों का मिल-बांट कर खाना आनंद की पराकाष्ठा को प्राप्त कर रहा था। दादी भी मन ही मन मगन थीं। किसानी का मजा ऐसे ही आता है, बस उसे महसूस करनेवाला हो। बगल ही तालाब आसमान से पानी की उम्मीद लिए उधर ही निहारे जा रहा था, पर इधर के हलचल को देख उसमें भी शामिल होना चाहा, पर मजबूर था कि वो बिना पानी के था। सोचने लगा कि काश मेरे पास जल होता तो आज ये सभी यहीं बैठकर मिल बांट कर खा रहे होते और मैं भी शरीक हो जाता इनकी खुशियों में, पर… काश… बेचारा तालाब दु:ख में एक कोने दुबक कर बैठा रहा। बबूल, आम सब मुंह चिढ़ा रहे हों जैसे।
उधर, चबैना के बाद लोग फिर अपने काम में लग गए थे। दादी वापस घर जा चुकी थीं। शाम होते-होते धान पूरे खेत में शृंगार किए पैâल गया, खेत जो एकदम उजाड़ सफेद नजर आ रहा था, बिल्कुल ही हरा-भरा हो उठा। सावन की तैयारी दिखने लगी खेत में। लोग घर जा चुके थे। दादी सभी के लिए पूड़ी, सब्जी और खीर बनाई थीं। खाकर लोग अपने-अपने घरों को चल दिए। रात करीब आठ बजे होंगे जब बूंदा-बांदी शुरू हुई थी, उसके बाद तो पूरी रात वो बारिश हुई कि सुबह तक होती ही रही। दादी सुबह उठते ही पहले खेत के पास भागीं। बेहन बह गया था। तालाब में तैरते बेहन वहां की शोभा बढ़ा रहे थे। तालाब और खेत सबका पानी बराबर ही दिख रहा था। जहां तक निगाह जाती पानी ही पानी। बाढ़ सब कुछ बहा ले गया था, नहीं बही थी तो बस दादी की उम्मीद। बेहन अभी बहुत थी दुबारा से धान रोपाई हुई। कहते हैं कि उस बार जितना धान न तो पहले कभी हुआ था और न ही उसके बाद कभी हो सका।
(लेखक ‘बखार कला पत्रिका’ के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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