मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : मिट्टी, सुगंध और बर्तन

काहें बिसरा गांव : मिट्टी, सुगंध और बर्तन

पंकज तिवारी

सिर पे लेकर खाद-गोबर घर चलाना याद है।
हर घड़ीऽ मेहनत करो, बाबू का गाना याद है।।
बुधई कका सुबह से लेकर शाम तक लगातार खटते रहते थे। बेचारे काम इतना करते थे कि काम भी थक जाए और कह उठे, ‘अरे चचा बसि करऽ राजू रचि के हमहूं के त भरि मोह सांस लेइ दऽ।’ पर कका थे कि किसी की सुनते ही नहीं थे। काकी रोज कहती थीं कि अब उमर हो चली है, आराम करने का समय आ गया है, बच्चे हैं सब सम्हाल लेंगे पर कका राम धुनी नहीं, बल्कि काम धुनी थे। किसी के कहने का कोई असर नहीं होता था उन पर। सवेरे-सवेरे कछाड़ और पगड़ी बांधे चल देते थे पुरबै। पलरा और खुरपी हाथ में लिए ‘जागऽ होऽ बम भोला सबेर भवा’ जोर-जोर से गाते हुए कका जब आगे बढ़ते जा रहे होते थे तो रास्ते में पैलगी, जैरमी करनेवाले बहुत मिल जाते थे तो कोई साथ में ही गाते हुए सीधे तालाब तक चला जाता था। गांव में लोग बसते हैं, लोगों का स्नेह, दुलार, प्यार बसता है। गांव की हवा में खुश्बू है तो उतनी ही या ज्यादा मात्रा में लोगों द्वारा बोले गए शहद जैसे शब्द भी हैं जो मचलते रहते हैं लोगों के जेहन में। कांधे पर लाठी और लाठी पर क्रमश: दायां और बायां हाथ धरे, मचलते, गोरू चराते चनेथू चचा के बित्ता भर की दाढ़ी के बीच से झांकता छोटा सा मुंह और वहां से झरता मधुर-मधुर शब्द, ऐसे ही और भी लोगों के शब्द पूरे गांव की शोभा होती थी। बुधई कका भी इन सभी शोभाओं में से एक थे। आगे बढ़ते जा रहे होते थे रास्ते में पड़ने वाले गाय-भैंस का माथा भी सहलाते जाते थे कका। प्रेम अथाह था उनके मन में। हरे-भरे पेड़-पौधे, कलरव करते खगकुल के बीच से होते हुए जब तालाब पर पहुंच जाते थे कका आराम से बैठकर खुरपी से पिड़ोर खोदते और पलरा में भरकर सिर पर लादे घर चले आते थे, यही रोज करते थे। बीच-बीच में मिट्टी सान कर कायदे से दियली, भरुका, मेटी, कमोरी बनाने हेतु तैयार करते थे। कुछ देर सीझने के लिए छोड़ देते और नादी, हउदा करने के बाद खरौंचा से साफ-सफाई के कामों में भिड़ा जाते थे। नीम की दातून तो घंटों मुंह में लिए रहते थे कका। काकी आराम से दुआरे बैठी चारों तरफ के चहल-पहल के बीच कका और उनके कामों को देखते रहा करती थी। घांस-फूस की मड़इया में गजब का सुकून था और सुकून था लोगों में। कका इन सभी कामों से फारिग हो आराम से चाक के पास ऊंचे पीढ़ा पर बैठ जाते थे, दोनों पैर पैâलाकर बड़े से डंडे के साथ जब चाक घुमाना शुरू करते, कका अपने सपनों के सफर पर हो जाते थे। खूऽब देर तक चाक चलता रहता था और रंग-रंग के चीजों को साकार कर रहे होते थे कका। मिट्टी को दोनों अंगूठों से बड़े ही प्रेम से गढ़ते हुए कका जैसे अपने में ही खो जाते थे। घूमते चाक पर माटी का पूरा संसार बसा होता था जो कका के हाथों निखर कर, पक कर लोगों तक अपनी महक को पहुंचाता था। माटी कऽ भुड़का में चाय पीने वालों से पूछना हो कि क्या होती है माटी की सुगंध तो असली बात समझ आएगी। खैर, कका तो उसी में रमे और बसे थे। उनके सपनों में, अपनों में हर जगह बस और बस माटी ही थी। घाम सीधे मुंह पर आने लगता पर कका को जैसे और किसी की सुध ही नहीं होती थी। मेटी, कमोरी, कलसा, कोसा, गल्ला सब कुछ बहुत ही करीने से बनाते थे कका। बनाते क्या, बल्कि रचते थे, रोज सृजन के नए आयाम गढ़ते थे कका। हवा, झूलती डालियां, पागुर मलते गोरू-बछरू सब बड़े ही ध्यान से जैसे कका को निहार रहे होते थे, जब कका अपने सपनों में खोए होते थे। अगल-बगल के नन्हे-मुन्ने बच्चे भी आराम से आकर कका के पास बैठ जाते थे और घंटों बैठे रहा करते थे। दूऽर कहीं मेटी में मट्ठा, कोसा में दीया, गल्ले में भविष्य तो भुड़के में चाय को सम्हाला जा रहा होता था। गांव यही था, अब नहीं रहा।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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