डॉ. दीनदयाल मुरारका
सभा में प्रवचन कर रहे गौतम बुद्ध ने सभा में उपस्थित लोगों से कहा, देश में अकाल पड़ा है। लोग अन्न-वस्त्र के लिए तरस रहे हैं। उनकी सहायता करना हर मनुष्य का धर्म है। आप लोगों के शरीर पर जो वस्त्र है, उन्हें दान में दे दो।
यह सुनकर कुछ लोग उठकर चले गए। कुछ कहने लगे, यदि हमने हमारे वस्त्र दे दिए तो हम क्या पहनेंगे? उपदेश समाप्त हुआ। सभी प्रवचन सुननेवाले चले गए पर निरंजन बैठा रहा। वह सोचने लगा कि मेरे शरीर पर तो एक ही वस्त्र है। अगर मैं अपने वस्त्र को दान में दे दूंगा। तो मुझे नग्न ही रहना पड़ेगा। फिर उसने सोचा मनुष्य बिना वस्त्र के पैदा होता है और बिना वस्त्र के ही चला जाता है और उसने अपनी धोती दान में दे दी और घर की ओर चल पड़ा और खुशी से चिल्लाकर बोला, मैंने अपने आधे मन को जीत लिया। तभी निरंजन ने देखा कि दूसरी ओर से महाराजा प्रसनजीत आ रहे हैं। निरंजन की बात सुनकर उन्होंने उससे पूछा, तुम्हारी बात का क्या अर्थ है? निरंजन ने उत्तर दिया, महाराज, गौतम बुद्ध दुखियों के लिए वस्त्र दान में मांग रहे थे। यह सुनकर मेरे एक मन ने कहा कि मैं अपने शरीर पर पड़ी एकमात्र धोती दान दे सकता हूं। विंâतु मेरे दूसरे मन ने कहा, यदि तुम इसे भी दान में दे दोगे तो पहनोगे क्या? किंतु अंत में मेरे दान देनेवाले मन की विजय हुई। मैंने धोती दान में दे दी। यह सुनकर महाराज प्रसनजीत ने अपना परिधान उतारकर निरंजन को दे दिया। निरंजन ने उसे भी महात्मा बुद्ध के चरणों में डाल दिया। बुद्ध ने निरंजन को हृदय से लगाते हुए कहा, जो अपना सब कुछ दान कर देता है, उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। अत: वत्स तुम्हारा दान सर्वश्रेष्ठ है।