डॉ. दीनदयाल मुरारका
एक समय एक युवा सैनिक ने धर्म शास्त्रों का बहुत गहन अध्ययन किया। वह जानना चाहता था कि स्वर्ग और नरक में क्या अंतर है? उसने एक संत से पूछा, बताइए कि क्या स्वर्ग और नरक वास्तव में होते हैं या यह महज मात्र कल्पना भर है।
संत ने उसे अच्छी तरह देखा और पूछा, तुम्हारा पेशा क्या है? सैनिक ने उन्हें अपने पेशे के बारे में बताया। फिर संत ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा, तुम और सैनिक? तुम्हें कौन सैनिक कहेगा? किसने तुम्हें भर्ती कर लिया। देखने से तो तुम कायर लगते हो। भय और आशंका तुम्हारे चेहरे पर स्पष्ट झलक रही है। यह सुनकर उस सैनिक का खून खौल उठा और उसने बंदूक निकाल ली। संत ने कहा, तुम बंदूक भी रखते हो? बहुत अच्छे, क्या तुम इस खिलौने वाली बंदूक से मुझे डराओगे? इस बंदूक से तो बच्चा भी नहीं डरेगा। यहां सुनकर सैनिक ने अपना आपा खो दिया। उसने झट से बंदूक का घोड़ा दबाने के लिए हाथ बढ़ाया। इस पर संत ने कहा, लो बस यही नर्क का द्वार है। संत की बात का मर्म समझते हुए युवक की आंखें खुल गर्इं और उसे अपने किए पर पछतावा होने लगा। वह संत के चरणों में गिर पड़ा। चरणों में गिरते ही संत ने कहा, लो स्वर्ग का द्वार खुल गया।
स्वर्ग एवं नरक आनंद एवं दुख की वह स्थिति है जो हम शांत रहकर या क्रोध करके उत्पन्न करते हैं। जिस क्षण व्यक्ति को क्रोध आता है उसका संपूर्ण अस्तित्व गहरी अशांति को प्राप्त हो जाता है। यह प्रत्यक्ष नरक के समान दुखदाई होता है। खुद की शांति के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। जब हम इस जिम्मेदारी को उठाते हैं, तो स्वर्ग का निर्माण कर रहे होते हैं। संसार ही हमारी सृष्टि है। अत: यदि हम अपना जीवन शांतिपूर्ण ढंग से व्यतीत करते हैं, तो ऐसा मानो के, हम स्वर्ग के मार्ग में चल रहे हैं। यदि हम ऐसा करने में सफल नहीं हो पाते और जीवन में अशांति पैदा करते हैं तो मानो कि हम नर्क के रास्ते जा रहे हैं।