डॉ. दीनदयाल मुरारका
ईश्वरचंद्र विद्यासागर मानव सेवा को ही सर्वोत्तम मानते थे। एक बार कोलकाता महामारी की चपेट में आ गया। ऐसे विकट समय में ईश्वरचंद्र विद्यासागर कॉलेज जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने एक व्यक्ति को सड़क पर बुरी तरह से कराहते हुए देखा। उसके समीप ही झाड़ू पड़ा हुआ था। झाड़ू आदि को देखकर वह समझ गए कि यह सफाई कर्मचारी है और महामारी की चपेट में आ गया है।
उन्होंने उसे हाथ लगाया तो पाया कि वह तेज बुखार से पीड़ित है। मौके की नजाकत समझते हुए वह उस सफाई कर्मी को अपने घर ले आए। उसे बिस्तर पर लिटाकर डॉक्टर को दिखाया और दवा दिलवाई। सफाई कर्मी महामारी से पीड़ित होकर अत्यंत कमजोर हो चुका था। वह खड़ा हो पाने में भी असमर्थ था। यह देखकर ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने उसे पकड़कर बिठाया और उसके शरीर की सफाई की। उस मरीज की इतनी सेवा करते देख उनके एक निकट संबंधी ने कहा, क्या आप इन्हें पहचानते हैं कि यह कौन है? विद्यासागर बोले, हां यह और मैं दोनों ही इंसान हैं और एक ही पेशे से हैं। पेशे में फर्वâ इतना है कि मैं ज्ञान के माध्यम से समाज में पैâली बुराइयों की सफाई करता हूं और यह सफाई कर्मी होने के कारण समाज में पैâली गंदगी की झाड़ू से सफाई करते हैं। अत: मेरा हमपेशा होने के कारण यह मेरा भाई हुआ। उस मरीज ने जब ईश्वरचंद्र विद्यासागर के यह शब्द सुने तो उसकी आंखें भर आर्इं क्योंकि उसके निकट संबंधी भी उससे अपना नाता छोड़कर चले गए थे। तब विद्यासागर अपने निकट संबंधी से बोले, मित्र वास्तव में मानव सेवा ही सर्वोत्तम है। ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपने जीवन में मानवता के इस तरह कई उदाहरण प्रस्तुत किए, जो आज भी प्रेरणा देने का काम करते हैं।