डॉ. दीनदयाल मुरारका
दक्षिण भारत के संत रामलिंगम स्वामी करुणा और प्रेम को ही भक्ति का मूल आधार बताया करते थे। एक बार उनके पास कुछ धनी व्यापारी आए। उन्होंने कहा, महाराज हम एक यज्ञ का आयोजन करने का संकल्प लेकर आए हैं और चाहते हैं कि यज्ञ में पहली आहुति आप ही डालें, ताकि हमारा यज्ञ सफल हो। उनकी बात सुनकर रामलिंगम स्वामी बोले यज्ञ अवश्य होगा। कल सवेरे आप हवन करने के लिए बढ़िया वस्तु लेकर आएं। मैं कल आपको यज्ञ के माध्यम से साक्षात देव दर्शन भी कराऊंगा।
यह सुनकर सभी व्यापारी खुश होकर वहां से चले गए। अगले दिन यज्ञ के लिए बढ़िया सामग्री सहित खाद्य सामग्री भी पहुंचा दी गई। स्वामी जी ने यज्ञ के लिए दी गई खाद्य सामग्री से हलवा, खीर, पूड़ी आदि व्यंजन तैयार करवा दिया। इसके बाद उन्होंने गरीबों को आमंत्रित कर पंक्ति में बैठा दिया। अब स्वामी जी व्यापारियों से बोले, इन सबको सम्मान और प्रेम के साथ भोजन कराओ। यह अनुभव करो कि तुम यज्ञ में सच्चे मन से आहुतियां डाल रहे हो। अपने मन में किसी भी किस्म का राग-द्वेष मत आने दो। यह सोचो कि अभावग्रस्त और दो वक्त की रोटी को तरसते यह लोग साक्षात देवता बनकर आपकी आहुतियां ग्रहण कर रहे हैं। व्यापारियों ने उनकी बात मानकर ऐसा ही किया। उन्हें वाकई असीम संतोष और अद्भुत आनंद प्राप्त हुआ। सभी धनी व्यक्तियों और अभावग्रस्त लोगों के चेहरे पर प्रसन्नता देखकर स्वामी रामलिंगम बोले, जब किसी भूखे असहाय व्यक्ति को भोजन देकर उसके भूख की तृप्ति की जाती है, उस समय उसके अंत:करण से निकला कृतज्ञता का भाव, ईश्वर का आशीर्वाद होता है। स्वामी जी के अनुयायियों ने आज भी अन्नदान की उस परंपरा को जीवित रखा है।