डॉ. दीनदयाल मुरारका
एक बार एक शिष्य अपने गुरु के दर्शन के लिए घर से निकला। रास्ते में एक नदी पड़ती थी। बारिश के दिन थे इसलिए तेज बारिश के कारण नदी में बाढ़ आ गई थी। शिष्य सोचने लगा कि नदी वैâसे पार की जाए? गुरु के पास जाना आवश्यक था। तभी उसने दृढ़ निश्चय किया कि वह किसी भी तरह गुरु के पास पहुंचकर ही रहेगा।
उसने मन ही मन श्रद्धापूर्वक गुरु का ध्यान किया। इसके बाद उसने अपने भीतर एक शक्ति महसूस की। वह परिणाम की परवाह किए बगैर नदी में उतर पड़ा और किसी तरह उसे पार करके गुरु के पास पहुंच गया। गुरु ने शिष्य को देखा तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। शिष्य गुरु के चरण स्पर्श के लिए झुका ही था कि गुरु जी ने बीच में उठाकर उसे गले लगा लिया।
क्षणभर में ही उनका ध्यान भंग हुआ। याद आया कि बाहर तो बारिश हो रही है। मन में सवाल उठा कि इस तेज बारिश में शिष्य नदी पार करके वैâसे आया होगा क्योंकि दूर-दूर तक किसी भी नाविक के होने की उम्मीद नहीं थी। उन्होंने शिष्य से आखिर पूछ लिया कि इस उफनती नदी को तुमने वैâसे पार किया? शिष्य ने बताया, बस आपके नाम का आश्रय लेकर मैं चला था, समझ लीजिए नदी ने खुद रास्ता दे दिया। गुरु ने सोचा मेरे नाम में यदि इतनी शक्ति है इसका अर्थ यह है कि मैं बहुत ही महान एवं शक्तिशाली हूं। अगले दिन जब धूप खिली तो गुरुजी नाव का सहारा लिए बिना नदी पार करने लगे। नदी की धारा पर पांव रखते ही उन्होंने अपने आपको संबोधित किया। अपना नाम लेकर जैसे ही उन्होंने कदम बढ़ाया नदी की तीव्र धारा में गुरुजी के पांव लड़खड़ा गए और गुरुजी गिर पड़े। उनका भ्रम दूर हो गया कि उनके नाम में कोई शक्ति है। उन्हें यह भी समझ में आ गया कि श्रद्धा और अहंकार में अंतर होता है। श्रद्धापूर्वक यदि हम अपने आपको किसी को समर्पित करते हैं, तो ईश्वर रास्ते की कठिनाइयों को तुरंत हल कर देता है।