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लिटरेचर प्वाइंट : क्या लेखक को मॉडल बनना चाहिए?

रासबिहारी पांडेय

विज्ञापन कंपनियां पूंजीवादी व्यवस्था का अविभाज्य अंग हैं। अपने उत्पाद बेचने के लिए वे समाज में स्थापित और चर्चित चेहरों का इस्तेमाल करती हैं। सबसे अधिक विज्ञापन फिल्म कलाकार और क्रिकेटर करते हैं। ये सितारे जितने पैसे अपने मूल काम के लिए लेते हैं, उससे कई गुना अधिक १०-२० सेकंड के विज्ञापन के लिए लेते हैं। उत्पाद बेचने के लिए कंपनियां इन्हें अपना ब्रांड घोषित करती हैं। पैसों के एवज में ये शख्सियतें वह सब कुछ बोलती हैं जो कंपनियां उनसे चाहती हैं। हर कंपनी के बस की बात नहीं कि वह किसी बड़े सितारे से अपने ब्रांड का विज्ञापन करा सके। दूसरी-तीसरी श्रेणी की कंपनियां पैसे लेने के हिसाब से दूसरी-तीसरी श्रेणी के सितारों को ढूंढ़ती हैं। जो कंपनियां सितारों का खर्च वहन नहीं कर सकतीं, वे साधारण मॉडलों से ही काम चला लेती हैं। अभिनेताओं के अतिरिक्त गीतकार जावेद अख्तर और वरुण ग्रोवर, गजल गायक जगजीत सिंह, निर्देशक अनुराग कश्यप आदि भी टीवी पर कुछ विज्ञापन कर चुके हैं। हाल ही में गजलगो आलोक श्रीवास्तव ने एक फर्नीचर का विज्ञापन किया है। लेखक और ब्लॉगर अशोक कुमार पांडेय ने अपने फेसबुक पोस्ट में एक बातचीत का स्क्रीनशॉट लगाते हुए लिखा है कि बेटिंग कंपनी द्वारा उन्हें एक विज्ञापन के लिए ९०,००० रुपए का प्रस्ताव था, जो उनके जैसे व्यक्ति के लिए कम नहीं है, मगर बात उसूलों की है, ९० करोड़ भी मिलें तो मैं इस तरह का समझौता नहीं करूंगा। ऐसी प्रतिबद्धता कोई लेखक ही दिखा सकता है। आज तमाम कलाकार सट्टे वाले ऐप, शराब, गुटका और पान मसाले का प्रचार करने में लगे हुए हैं। जब पैसे लेकर कवि, लेखक और पत्रकार भी कंपनियों के हित में झूठे दावों वाले विज्ञापन करने लगेंगे तो वह समय हमारे समाज के लिए सबसे बुरा समय होगा। जीवन सिर्फ पाने का नाम नहीं है, आत्मा की आवाज सुन कर ठुकराने का भी नाम है। यह बात लेखक से बेहतर कौन समझ सकता है? पैसे के लिए जो लोग अपना ईमान गिरवी रख सकते हैं, वे हमारे प्रेरणास्रोत वैâसे हो सकते हैं?
स्वयं को बाजार के हवाले करने के सिर्फ फायदे ही नहीं नुकसान भी बहुत हैं। कई कवि/लेखक सार्वजनिक रूप से यह कहने में फख महसूस करते हैं कि हम इतने पैसे लेते हैं… हम इतने देशों की यात्रा कर चुके हैं। इस तरह के बयान लेखकीय गरिमा के विरुद्ध हैं। हम किसी कवि/लेखक को इसलिए पढ़ते या सुनते नहीं हैं कि वह कितना महंगा या सस्ता है। हम उसके लेखन से प्रभावित होते हैं, इसलिए उसे पढ़ते हैं या उसका सम्मान करते हैं। पंत, प्रसाद, निराला, प्रेमचंद और शरतचंद्र कितने अमीर थे, इससे उनका स्तर तय नहीं हुआ। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि कुछ लेखकों की जरूरतें लेखन से पूरी नहीं हो पातीं, इसलिए पैसा कमाने के लिहाज से थोड़ा बाजारू होकर समझौता कर लेने में बुराई नहीं है। लुगदी साहित्य, घटिया फिल्में और उनके चालू गीत ऐसे ही लेखकों द्वारा लिखे जाते हैं जो समाज का बेड़ा गर्क करने में अहम भूमिका निभाते हैं। आजीविका के लिए दूसरे काम करने चाहिए, लिखते समय लेखक को पूरी ईमानदारी बरतनी चाहिए। लेखन एक साधन है, इसे व्यवसाय बनाने के लिए किसी भी तरह का समझौता करना वाग्देवी का अपमान है। लेखन से बनी हुई अपनी छवि को पैसों के एवज में दूसरों के हित साधन में लगाना अक्षम्य अपराध है। कबीर और रविदास को इसी वजह से कभी दोयम दर्जा नहीं दिया गया। तुलसी ने अकबर के दरबार का नवरत्न होना स्वीकार नहीं किया। अपनी चेतना को गिरवी रखकर लेखकीय प्रतिबद्धता नहीं निभाई जा सकती।

(लेखक वरिष्ठ कवि व साहित्यकार हैं।)

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