रासबिहारी पांडेय
हिंदी जगत में गलत दोहे, चौपाई, श्लोक, शेर और अन्य काव्यांश तथा उसकी गलत व्याख्या करनेवालों की अच्छी-खासी संख्या है। ध्यान दिलाने पर कुछ लोग सुधार कर लेते हैं, मगर कुछ लोग सुधार करने की बजाय उसकी दलील में ढेर सारे समर्थक जुटा लेते हैं। कुछ ही समय पहले गोस्वामी तुलसीदास की चौपाई ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी…’ के भावार्थ को लेकर यह तमाशा और लंबी बहस हम देख चुके हैं। ताजा प्रकरण केंद्रीय हिंदी साहित्य अकादमी विजेता कवयित्री अनामिका की कविता से जुड़ा है। वे लिखती हैं-
अपनी जगह से गिरकर
कहीं के नहीं रहते
केश, औरतें और नाखून…
अन्वय करते थे किसी श्लोक का
ऐसे हमारे संस्कृत टीचर
डर कर जम जाती थीं
हम लड़कियां अपनी जगह पर!
मूल श्लोक इस प्रकार है-
स्थानभ्रष्टा: न शोभन्ते दन्ता: केशा: नखा नरा:।
इति विज्ञाय मतिमान् स्वस्थानं न परित्यजेत्।।
अर्थात अपने स्थान से गिरकर बाल, नख और नर शोभा के योग्य नहीं रह जाते इसलिए बुद्धिमान पुरुष अपने स्थान का परित्याग नहीं करते। सामान्य पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी जानता है कि नर का अर्थ मनुष्य है। क्या यहां कवयित्री को स्वविवेक से काम नहीं लेना चाहिए! अगर बचपन में उनके किसी अध्यापक ने अज्ञानता बस नरा: का अर्थ नारियां बता दिया तो अपनी प्रौढ़ उम्र में उन्हें वह गलती सुधार नहीं लेनी चाहिए? गलती सुधारने की बजाय उस व्याख्या को आधार बनाते हुए कविता रचकर वे हिंदी जगत को सौंप रही हैं, यह कितना बड़ा अपराध है! हर व्यक्ति तक मूल रचना नहीं पहुंचती। कवि, लेखक पर यह जिम्मेदारी होती है कि किसी अन्य भाषा की पंक्ति का अनुवाद करते समय पूरी सतर्कता बरते, ताकि अर्थ का अनर्थ होने की कोई संभावना न रहे। संस्कृत में रचित हितोपदेश में उद्धृत इस अमर श्लोक की गलत व्याख्या पढ़कर दूसरी भाषाओं के लोगों में क्या संदेश जाएगा?
दिल्ली विश्वविद्यालय में इसी भावार्थ को सही समझकर वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन हुआ था, मूल श्लोक देखने के बाद इसे रद्द कर दिया गया।
इस बहस की शुरुआत कृष्ण कल्पित की टिप्पणी से हुई थी। बाद में इसके पक्ष-विपक्ष में कई लोगों ने लिखा। कवयित्री को प्राथमिक कक्षा में किसी अज्ञानी अध्यापक ने श्लोक की गलत व्याख्या बताई, किंतु राधावल्लभ त्रिपाठी जैसे संस्कृत के वयोवृद्ध विद्वान द्वारा उसका समर्थन किया जाना और नरा: शब्द में ही स्त्रियों के समाहित हो जाने की बात करना समझ से परे है। स्त्री विमर्श के नाम पर किसी श्लोक को गलत उद्धृत करना एक साहित्यिक अपराध है और इस अपराध के बचाव में खड़ा होना उससे भी बड़ा अपराध है।
प्राचीन सूक्तियों को तोड़-मरोड़ कर बहुतेरे लोग कविता की शक्ल देने की कोशिश करते हैं, वैसे ही जैसे अनेक कवि लोकगीतों को थोड़ी फेरबदल के बाद अपना गीत घोषित कर देते हैं। यह एक गलत चलन है, किसी दूसरे के विचार को अपना बनाकर प्रस्तुत करना या उसका गलत भावार्थ कर सहानुभूति प्राप्त करने की चेष्टा निंदनीय है।
(लेखक वरिष्ठ कवि व साहित्यकार हैं।)