रासबिहारी पांडेय
गीतिकाव्य के शिखर पुरुष और नवगीत आंदोलन के पुरोधा गीतकार माहेश्वर तिवारी का परलोक गमन हिंदी जगत के लिए बहुत बड़ी क्षति है। नवगीत दशक, नवगीत अर्द्धशती, यात्रा में साथ-साथ, गीतायन, स्वांत: सुखाय, पांच जोड़ बांसुरी जैसे चर्चित संकलनों की वे एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। हरसिंगार कोई तो हो, नदी का अकेलापन, फूल आए हैं कनेरों में, नींद में चुपचाप कविताएं, सागर मुद्राओं पर तर्जनी आदि काव्य संकलन उनकी रचनात्मकता के निकष हैं।
कहते हैं कि वट वृक्ष के नीचे कोई पौधा नहीं पनपता लेकिन वह गीत के ऐसे वटवृक्ष थे, जिनकी छांव में हम जैसे अनेक रचनाकार पल्लवित पुष्पित हुए। मैं उन सौभाग्यशाली कवियों में हूं, जिसे उनका निकट सान्निध्य पाने और संपर्क में रहने का सुखद सौभाग्य प्राप्त हुआ। मुंबई से उनका बड़ा आत्मीय रिश्ता था। यहां उनके ससुराल पक्ष के लोग रहते थे, इस नाते भी और साहित्यिक आयोजनों के लिए भी लगभग हर वर्ष उनका आना होता था। मुंबई की कई संस्थाओं ने उन्हें विशेष रूप से सम्मानित किया।
जब मुंबई में उन्हें परिवार पुरस्कार से सम्मानित किया गया, तब मैंने उनका एक लंबा साक्षात्कार किया था। वह साक्षात्कार कई अखबारों सहित मेरी साक्षात्कार पुस्तक `चेहरे’ में भी शामिल है। जब मैंने उनसे पूछा कि आपकी रचना प्रक्रिया क्या होती है? तो उनका जवाब था कि मैं अधिक से अधिक और नया से नया पढ़ने की कोशिश करता हूं। बच्चन जी के अनुसार, १०० पंक्ति पढ़ने के बाद एक पंक्ति लिखने की बात सोचता हूं, यह जरूरी नहीं कि लिखूं ही। गीत खासकर एक बैठक में ही लिख लेता हूं। लिखकर रख देता हूं, जब कोई दूसरी नई रचना हो जाती है तो पुन: उसे देखता हूं, अच्छा लगता है और जरूरत समझ में आती है तो कुछ और संशोधन कर लेता हूं, अन्यथा छोड़ देता हूं। मात्र दो या तीन अंतरों के गीत लिखने के बारे में उनका कहना था कि गीत एक ऐसी प्रक्रिया है, जो बहुत लंबी नहीं हो सकती। पुराने लोकगीतों में टेक ही मूल होता है। चूंकि चौपाल में देर तक बैठना होता है इसलिए कुछ और पंक्तियां जोड़ ली जाती हैं। गजलों में भी सैकड़ों शेर कहे जाते हैं लेकिन ५-७ शेर ही गाए जाते हैं।
माहेश्वर जी के गीतों में जीवंतता भरी हुई है। पंक्तियां सुनते ही दिल में उतर जाती हैं। नवगीतकार कहलाने के लिए ऐसे अनेक प्रयत्नज कवियों की भीड़ इकट्ठी हो गई, जो प्रयोग के पीछे कुछ ज्यादा ही पड़ गए। लिहाजा, गीत में लय बचा न उसमें सहजता और संप्रेषणीयता बची। माहेश्वर जी ने अपने गीतों में नवता के साथ-साथ सहजता का भी पूरा ख्याल रखा इसलिए उनके गीत श्रोताओं के कंठहार बन गए। वे जब गाते थे -धूप में जब भी जले हैं पांव घर की याद आई…तो अक्सर लोगों की आंखें गीली हो जाती थीं।
`एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर जाता है बेजुबान छत दीवारों को घर कर जाता है’ को फेसबुक पर अपने नाम से टीप कर कितने ही रचनाकार अपना वैवाहिक वर्षगांठ मनाते हैं। इससे बेखबर कि इन पंक्तियों का रचनाकार भी फेसबुक पर पूरी सक्रियता के साथ मौजूद है। फेसबुक पर गत ५ अप्रैल को उन्होंने एक कविता पोस्ट की थी-
कितनी सदियाँ गुजर गयीं लेकिन
सारी दुनिया सफर में है अब भी।
धूप में तप रहा है वर्षों से,
छाँव बूढ़े शजर में है अब भी।
हमारा सफर कठिन न हो और हम अपनी मंजिल तक पहुंच सकें, इसके लिए माहेश्वर तिवारी जैसे गीत के वट वृक्ष की छांव में थोड़ी देर छंहाना और सुस्ताना जरूरी है।
(लेखक वरिष्ठ कवि व साहित्यकार हैं।)