विवेक अग्रवाल
हिंदुस्थान की आर्थिक राजधानी, सपनों की नगरी और ग्लैमर की दुनिया यानी मुंबई। इन सबके इतर मुंबई का एक स्याह रूप और भी है, अपराध जगत का। इस जरायम दुनिया की दिलचस्प और रोंगटे खड़े कर देनेवाली जानकारियों को अपने अंदाज में पेश किया है जानेमाने क्राइम रिपोर्टर विवेक अग्रवाल ने। पढ़िए, मुंबई अंडरवर्ल्ड के किस्से हर रोज।
यह आपको या तो मजाक लगेगा, या फिर आप इसे किसी गपोड़ी का भी दिमागी तवाजुन हिलना समझेंगे। लेकिन ऐसा कुछ वजूद में था तो सही, पूरी तरह सही न हो, लेकिन कुछ हद तक इसमें सच्चाई थी। क्या आप भरोसा करेंगे कि इस गिरोह सरगना का भी ‘बीपीओ’ था
अक्तूबर २००६ में ताड़देव से पुलिस ने एक बीपीओ कर्मचारी हसन को धर दबोचा। उसका काम था छोटा शकील और फहीम मचमच को उनके बारे में सूचनाएं देना, जिनके सेलफोन बिल हर माह एक लाख रुपए से अधिक आते थे।
यही तो वह बात है जो दाऊद गिरोह को अन्य माफिया गिरोहों से अलग करती है। हफ्तावसूली के लिए डी-कंपनी नायाब तरीके खोजती है। एक बार तो गिरोह ने वीडीआईएस करने वालों की सूची निकाल ली थी। उसके आधार पर हफ्ता मांगने लगे। यह जानकारी कहीं और देंगे, अभी तो डी के बीपीओ की जानकारी लें। हसन के जरिए शकील और फहीम को व्यक्ति विशेष की तमाम जानकारियां मिलतीं थीं। उसमें टेलीफोन नंबर भी होता था। इतना होते ही विदेशी नंबरों से फहीम मचमच फोन पर धमकियां देने का सिलसिला शुरू कर देता। यह खेल शुरू होने पर ऐसा हड़कंप मचा कि लोग परेशान होने लगे। किसी को समझ नहीं आया कि इतनी निजी सूचनाएं इन सरमायादारों के पास वैâसे पहुंच रही हैं।
लंबी छानबीन और खासी माथापच्ची के बाद पुलिस हसन तक पहुंची। पूछताछ से पता चला कि एक लाख से ऊपर के बिल वाले एक व्यक्ति की जानकारी देने पर डी-कंपनी से उसे २० हजार रुपए नकद मिलते थे। वो शिकारों के घर और दफ्तर के पते भी डी-कंपनी को देता था। हसन के जरिए कितने लोगों को फोन गए, कितनों ने डी-कंपनी को हफ्ता दिया, इसकी पुख्ता जानकारी पुलिस को कभी नहीं मिली।
पुलिस ने तमाम बीपीओ मालिकान से कहा है कि वे आर्इंदा अपनी कंपनी में किसी को नौकरी दें तो उसकी पृष्ठभूमि अच्छी तरह जांच लें। कर्मचारियों के व्यवहार में परिवर्तन आए, या खान-पान व पहनावे में अचानक खासा फर्क दिखे, उनकी जीवनशैली अचानक बदल जाए, तो ऐसे बदलावों के पीछे का कारण जानने की कोशिश करें। वो तो इस मोडस ऑपरेंडी की सफलता से बड़ा गदगद लग रहा था। दाऊद की तारीफ करते नहीं थम रहा था। उसके महिमामंडन का सबसे बेहतरीन हिस्सा तो कुछ यूं था-
‘ ये दाऊद भाय है ना… दाऊद भाय। सच बोलता है सर एकदम खालिस भेजा पाएला है। खुदा ने उसका भेजे में सॉफ्टवेयर लोड करके ना, सीडी तोड़ दिया होंएगा, दूसरा पीस नहीं बनने कूं मंगता है।
मां से न मिल पाया अबू
अपनी आखों के तारे को वे आंख भर देख सकें, बस इतनी सी तमन्ना थी। जरा सी ख्वाहिश थी कि बरसों से जिसकी आवाज न सुनी, चंद लम्हात दो बोल सुन लें। अबू सालेम की बुजुर्ग मां बूढ़ी आंखों में बरसों पुरानी एक आस लिए गांव से मुंबई चली आर्इं। अक्टूबर २००६ के पहले सप्ताह में अबू ने ९३ बमकांड मुकदमे की विशेष अदालत में अर्जी दी। आजमगढ़ से आई मां से अदालत में मिलने की इजाजत मांगी।
हर आरोपी की हर अर्जी का हर बार विरोध करने की आदत से मजबूर सरकारी वकील उज्जवल निकम ने, इस अर्जी का भी विरोध किया। जज पीडी कोडे ने अर्जी ‘सही न लिखी’ होने की बात कहते हुए आवेदन ठुकरा दिया।
न खता उसकी, न वो कसूरवार, न कोई अपराध किया उसने, लेकिन एक बेचारी बुजुर्ग महिला एक ऐसी सजा पाती रही, जिसकी वो कतई हकदार न थी। जिस बेटे को बड़ी मन्नतों से पाया उसने, जिस बेटे को बड़े नाजों से पाला उसने, जिस बेटे को लेकर भर आंखें सपने देखे उसने, आज वही बेटा अपने अपराधों के चलते इतना करीब होकर भी उससे इतना दूर हो गया कि क्षण भर मिलने के लिए तरस गई। अदालत में वह क्षण बड़ा भावुक हो चला, जब आदेश आया कि मां-बेटे नहीं मिल सकेंगे। दूर से ही मां-बेटे ने एक-दूसरे को देख लिया, बस यही मिलना हो गया।
इन हालात में उसके एक साथी ने बड़े ही भावुक अंदाज में कहा-
‘जज साहेब ऐसा क्यूं किया पता नर्इं, पन अपुन का दिमाक का नस खींच दिएला ए भाय कोरट ने।’
(लेखक ३ दशकों से अधिक अपराध, रक्षा, कानून व खोजी पत्रकारिता में हैं, और अभी फिल्म्स, टीवी शो, डॉक्यूमेंट्री और वेब सीरीज के लिए रचनात्मक लेखन कर रहे हैं। इन्हें महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी के जैनेंद्र कुमार पुरस्कार’ से भी नवाजा गया है।)