मुख्यपृष्ठअपराधमुंबई का माफियानामा : मुंबई में दाऊद के दादा-पिता बेचते थे जूता

मुंबई का माफियानामा : मुंबई में दाऊद के दादा-पिता बेचते थे जूता

विवेक अग्रवाल

 

हिंदुस्थान की आर्थिक राजधानी, सपनों की नगरी और ग्लैमर की दुनिया यानी मुंबई। इन सबके इतर मुंबई का एक स्याह रूप और भी है, अपराध जगत का। इस जरायम दुनिया की दिलचस्प और रोंगटे खड़े कर देनेवाली जानकारियों को अपने अंदाज में पेश किया है जानेमाने क्राइम रिपोर्टर विवेक अग्रवाल ने। पढ़िए, मुंबई अंडरवर्ल्ड के किस्से हर रोज।

ये तो सब जानते हैं कि मस्तान वैâसे मुंबई आया। ये भी लोगों को पता है कि वरदा का मुंबई आना वैâसे हुआ। यह भी सब जानते हैं कि करीम लाला की आमद मुंबई में वैâसे हुई, लेकिन लोगों को कम ही पता है कि दाऊद इब्राहिम की मायानगरी मुंबई में आमद वैâसे हुई थी।
इब्राहिम शेख कासकर के बारे में आप जानते ही हैं कि वो दाऊद इब्राहिम का पिता था। उसका परिवार रत्नागिरी के छोटे से गांव मुमका में रहता था। बेहद छोटा सा गांव। कमाने-खाने के साधन भी सीमित थे। इब्राहिम शेख के पिता के पास जमीन न थी कि उससे हासिल फसल से घर का पेट पाल लेते। हालातों से मजबूर उन्होंने भी वही किया जो गांव के कुछ लोग कर चुके थे। स्वप्ननगरी मुंबई की ओर प्रस्थान।
यहां आकर कुछ दिन तक तो समझने में लग गए कि क्या काम करें। कुछ समय बाद तय किया कि भेंडी बाजार इलाके में जूते की दुकान खोलेंगे। जूता दुकान खोली और चल निकली तो हजामत की दुकान भी खोल ली। उन दिनों भेंडी बाजार इलाका वैसे ही बदनाम था क्योंकि डोंगरी से मोहम्मद अली रोड तक अपराधियों की भरमार थी।
दोनोें दुकानें वे अकेले नहीं चला सकते थे। मदद के लिए उन्होंने बेटे इब्राहिम को मुंबई बुलाया। इब्राहिम के लिए दुकानों में रोमांच या नया करने का मौका न था। दुकान में रहते उन्होंने देखा कि पुलिस वालों की लोग बहुत इज्जत करते हैं। उनका बड़ा रुआब है। जहां से पुलिस वाला निकले, सब सलाम ठोंकते हैं।
युवा इब्राहिम ने तय किया कि वो पुलिस में भर्ती होगा। तब पुलिस में नौकरी हासिल करना मुश्किल न था। इब्राहिम को आसानी से नौकरी मिल गई। उसकी समझ और बातचीत करने की कला देख वरिष्ठ अधिकारियों ने अपराध शाखा में तैनात कर दिया। बस, नौकरी चल निकली। फिर उनके १० बच्चे हुए, जिनमें दाऊद दूसरे नंबर पर था।
कोकण मूल का यही परिवार, आज मुंबई के स्याह सायों के संसार का ‘प्रथम परिवार’ बन चुका है।
वे जब मुंब्रा से प्रेस क्लब पहुंचे तो बुखार में तप रहे थे। उमर होगी कुछ ७२ साल की। उनके लिए ये बातें करना आसान न था। बावजूद उसके जिद पर अड़े रहे की बैठते हैं और बातें करेंगे। लिहाजा की, और आगे भी करते रहे:
– सच बोलता हूं, इब्राहिम भाई ने थोड़ी समझदारी दिखाई होती तो आज दाऊद कराची में नहीं मुंबई में होता। बस, वो डोंगरी में न रहते।
(एचटीएम की जुबानी)

(लेखक ३ दशकों से अधिक अपराध, रक्षा, कानून व खोजी पत्रकारिता में हैं, और अभी फिल्म्स, टीवी शो, डॉक्यूमेंट्री और वेब सीरीज के लिए रचनात्मक लेखन कर रहे हैं। इन्हें महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी के जैनेंद्र कुमार पुरस्कार’ से भी नवाजा गया है।)

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