मुख्यपृष्ठअपराधमुंबई का माफियानामा : पेरोल पर हफ्तावसूली!

मुंबई का माफियानामा : पेरोल पर हफ्तावसूली!

विवेक अग्रवाल

हिंदुस्थान की आर्थिक राजधानी, सपनों की नगरी और ग्लैमर की दुनिया यानी मुंबई। इन सबके इतर मुंबई का एक स्याह रूप और भी है, अपराध जगत का। इस जरायम दुनिया की दिलचस्प और रोंगटे खड़े कर देनेवाली जानकारियों को अपने अंदाज में पेश किया है जानेमाने क्राइम रिपोर्टर विवेक अग्रवाल ने। पढ़िए, मुंबई अंडरवर्ल्ड के किस्से हर रोज।

जेल से हफ्तावसूली के कारनामे तो आपने सैंकड़ों सुने होंगे…
लेकिन ये एक अजूबा है…
कोई गिरोहबाज जेल से कुछ दिन छुट्टी यानी पेरोल पर बाहर आए…
और हफ्तावसूली करे…
सोचिए क्या हालात हैं मुंबई माफिया के…
…और सोचिए क्या हालात हैं मुंबई की कानून व्यवस्था के।
गुरु साटम गिरोह के दो गुंडों विलास शिर्के उर्फ बाबू तथा विट्ठल जाधव उर्फ भाऊ की हरकतें कुछ ऐसी ही रही हैं। बाबू ने एक और भाऊ ने तीन बार पेरोल लिया था।
भाऊ की आदत ही खराब है। वह तीन बार जेल गया। तीन बार पेरोल हासिल की। तीनों बार पेरोल की शर्तें तोड़ीं। तीनों बार फरार हो गया। ये विचारणीय सवाल है कि कैसे एक गिरोहबाज एक के बाद एक पेरोल शर्तें तोड़ता है, उसके बावजूद बार-बार पेरोल मिलता है।
भाऊ हत्या के एक मामले में आजीवन कारावास काट रहा था। वह पेरोल पर बाहर आया लेकिन भाग निकला। यह जानकारी अपराध शाखा ९ के अधिकारियों को मिली, तो उसकी तलाश शुरू की।
एक मुखबिर से पता चला कि साथियों से मिलने परेल स्थित गौरीशंकर होटल के पास भाई और बाबू आते रहते हैं। यह सूचना काफी महत्वपूर्ण थी। निगरानी शुरू हो गई। दोनों एक साथ पकड़े गए।
भाऊ और बाबू का गुरू साटम गिरोह से संपर्क–संबंध दुनिया की सबसे बड़ी अपराध की पाठशाला में ही हुआ – यानी जेल में। बाहर आकर मुंबई, ठाणे, नई मुंबई इलाकों में लोगों को धमका कर वे हफ्तावसूली करने लगे।
ठाणे के एक व्यापारी को उन्होंने ५० लाख रुपए के लिए धमकाया। इस मामले में हफ्ताखोरों का भाग्य प्रबल न रहा। व्यापारी पुलिस के पास गया, तीन हफ्ताखोर गिरफ्तार हो गए। इसमें भाऊ और बाबू फरार हो गए। अब वे फिर पकड़े गए।
मसला उनकी गिरफ्तारी पर जाकर खत्म नहीं होता। सवाल ये है कि आखिरकार कब तक देश की जेल ‘सुधार के ठिकानों के बदले ‘अपराधी बनाने के कारखाने’ बनी रहेंगीं? उनके लिए ये कोई नई बात तो नहीं थी। हर दिन ऐसे दसियों मामले देखते थे। फिर भी उन्हें अचरज हो रहा था।
– यार ये बताओ, अदालतें क्या सोच कर इन गुंडों को पेरोल देती हैं?

(लेखक ३ दशकों से अधिक अपराध, रक्षा, कानून व खोजी पत्रकारिता में हैं, और अभी फिल्म्स, टीवी शो, डॉक्यूमेंट्री और वेब सीरीज के लिए रचनात्मक लेखन कर रहे हैं। इन्हें महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी के जैनेंद्र कुमार पुरस्कार’ से भी नवाजा गया है।)

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