आते-जाते मास!

बीत रहा इंद्रधनुषी फागुन दिन-प्रतिदिन
बहुत खेल लिए रंग लाल गुलाल हरे पीले,
होली में गाया फाग चंग डफली ढोलक संग।
खेल रहा मौसम भी नटखट भरे खेल
कभी गगन पर घिरते बादल
बरसा जाते कुछ बूंदें इधर उधर।
चलता समीर तीव्र गति से
उड़ाता भू पर पड़े पीले पात
कहीं दुबक जाता हो शांत अगले क्षण
चेत्र मास की आहट गुनगुनाहट सुनाई दे रही
उत्तर दिशा उड़ उड़ आते दक्षिण के पखेरू
धनेश कोयल पपीहा बुलबुल।
अब चेती गायन के लिए साज़ रहे सज
बोल सुर ताल चेती के होते बहुत मधुर
लोक गीतों में होते मनोभाव बड़े मधुर और सरल।
व्यथा यही कि गांवों में रहे न अब चौपाल चौराहे
सांझ समय बैठ जहां दिन भर की थकान मिटाते सारे
पीपल वट वृक्ष की छांव में कटते थे दिन माघ फाल्गुन के।
बैसाख मास में कटती फसलें, महक जाते थे वन उपवन
हो मंगलमय नववर्ष उल्लास में हर्षित होते सबके मन।
-बेला विरदी

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