मुख्यपृष्ठस्तंभअर्थार्थ : ग्रामकोष बनाम राजकोष!

अर्थार्थ : ग्रामकोष बनाम राजकोष!

पी. जायसवाल मुंबई

जीएसटी कलेक्शन की खबर आई कि अप्रैल २०२४ में जीएसटी का २ लाख करोड़ रुपए का रिकॉर्डतोड़ कलेक्शन हुआ। अगर इसको थोड़ा हार्ड लैंग्वेज में बोलें तो अंतिम उपभोक्ता जो अंत में जनता ही है, उससे टैक्स की रिकॉर्डतोड़ वसूली हुई है। अब इसे अच्छा मानें या बुरा। अलग-अलग विचारधारा वाले इसकी अपने तरह से व्याख्या करेंगे, लेकिन चलो इसे अच्छा मानकर ही चलते हैं। यह कलेक्शन सौदों का बेस, महंगाई के कारण मूल्य का बेस और सौदे होने के कारण भी हुआ है इसलिए मिश्रित कारण है, यह अच्छा भी है बुरा है, अच्छे को बढ़ावा देना है और जो बुरा कारण है महंगाई उस पर काम करना है।
जीएसटी रूपी डेस्टिनेशन बेस्ड कर प्रणाली की शुरुआत के आए भी कई साल हो गए, इसके अच्छे बुरे परिणाम जो भी हैं, वह सब सामने आ गए, सरकार ने समय-समय पर सुधार भी किए। अब इस प्रणाली से ये पता चल सकेगा कि एक टैक्स क्लस्टर से कितना कर का संग्रह हुआ। हालांकि, पूर्व के कर प्रणाली, कर संग्रह सूचना को लेकर जो समस्या थी, जिसके कारण हमारे गांवों और कस्बों के लोगों को यह पता ही नहीं चलता था कि विभिन्न करों के माध्यम से उन्होंने कितना टैक्स दिया है, वह पता ही नहीं चलता। अप्रत्यक्ष कर के इस डिफेक्ट के कारण आम नागरिक को यह पता ही नहीं चलता कि उनसे टैक्स के माध्यम से या मूल्य के माध्यम से देश का पूंजीपति से लगायत सरकार कितना लेती है और बदले में कितना वापस देती है। मेहनतकश गांव के किसानों को ये अहसास ही नहीं है कि अपनी जमीनों को कृषि योग्य रख के एक तरफ वो मानवता के साथ वो कितना बड़ा अहसान कर रहे हैं, जबकि दूसरी तरफ डीजल ट्रैक्टर एवं अन्य खरीद पर वो सरकार को अप्रत्यक्ष रूप से टैक्स दे रहे हैं। वास्तव में सरकार को किसान सम्मान निधि की राशि बढ़ाते हुए हर कृषि योग्य जमीन को क्षतिपूर्ति स्वरूप कुछ और राशि किसानों और ग्रामीणों को देनी चाहिए। सरकार यदि गैर कृषि जमीन में बदलने का चार्ज लेती है तो उसे कृषि भूमि रखने का लाभ भी किसान को देना चाहिए, क्योंकि जहां एक तरफ शहरों में लोग जमीनों के कारोबार से करोड़पति हो रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ किसान अपनी जमीनों को गैर कृषि योग्य जमीन में न बदलकर एक तरह से लाभ का अवसर त्याग कर रहा है, जिसका मूल्यांकन कर कोई क्षतिपूर्ति नहीं करता है। सैकड़ों सालों से यही रीति चली आ रही है, राजकोष के पैरोकारों को प्रजाकोष का ये त्याग दिखाई ही नहीं देता। मेरा सवाल है क्यों कोई ग्रामीण खेती करे वो चाहे तो एक एकड़ खेत २० लाख रुपए में बेचकर आराम से ब्याज डेढ़ लाख रुपए साल का कमा ले, लेकिन देश के पेट का ठेका लेने के बाद भी उन्हें उस एकड़ से शुद्ध लाभ के रूप में इतना नहीं मिलता। अगर किसानों के अवसर त्याग की कीमत ही जोड़ी जाए तो पूरी कर्ज माफी और सब्सिडी भी इसकी भरपाई करने के लिए कम पड़ेंगे।
अगर आप किसानों के लाभ अवसर त्याग के नुकसान की बात छोड़ दें तो भी अनुमानत: औसतन प्रति ग्रामीण से सरकार कुछ न कुछ टैक्स के रूप में लेती है, क्योंकि आजकल खानपान के अलावा कई तरह की खरीदी के माध्यम से नागरिक टैक्स देते हैं। यहां तक कि देश के पूंजीपति जो अपना टैक्स भरते हैं या अपनी विलासिता पर खर्च करते हैं, वह सब तो वह बिक्री के माध्यम से तो इन्हीं जनता से वसूलते हैं। अगर किसी ने ज्यादा कमाई की है, मतलब उसने ज्यादा वसूली की है, ज्यादा मुनाफा कमाया है मतलब ज्यादा रेट लगाया है। मतलब देश के पूंजीपति से लगायत सरकार का पोषक तो यही आम नागरिक ही हुआ, क्योंकि सबकी वसूली तो जनता के खाते, जिसे मैं प्रजाकोष बोलता हूं वहीं से हुआ।
ज्यादातर जनता आज जाति का, धर्म का वोट बैंक बनकर खुश है, उसे कभी एहसास ही नहीं होता, जिसे वह साहेब मालिक या बाबू कलक्टर समझती है। उसकी वह नियोक्ता और पोषक है। उन्हें इसी जनता ने ही नियुक्त किया है, वे उनके ही सेवक हैं उससे ज्यादा कुछ नहीं। चुनाव के इस आधुनिक दौर में भी उन्हें लगता है कि उनका पैरोकार कोई नेता विधायक या सांसद या कोई दबदबा या बड़े रसूख वाले ही बन सकते हैं। सिस्टम भी जनता से व्यवसायी की तरह ही व्यवहार करता है। वित्त मंत्रालय भी अपने जेब (राजकोषीय घाटा) की ही चिंता करता है।
इसीलिए सवाल आपको करने ही पड़ेंगे, ग्राम स्तर की वित्तीय स्वतंत्रता का विमर्श शुरू करना पड़ेगा। पंचायत के लिए यह ठीक है कि वह कर लगाने वाले अधिकरण नहीं हो सकते, लेकिन उनके यहां से कितना टैक्स संग्रह हो रहा है उसका हिसाब तो मांग सकती है। पंचायत भी तो सरकार का एक हिस्सा है।
हालांकि, जीएसटी के इस नए दौर ने जवाबदेही का एक सूचना प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराया है। अब वक्त आ गया है कि आम नागरिक समेत ग्राम और नगर पंचायतें वित्तीय रूप से भी अपने-अपने कोषों और अधिकारों की बात करें, तभी ग्राम स्वराज्य आ सकता है और पंचायतों को पूर्ण स्वतंत्रता मिल सकती है। उन्हें हिसाब मिले कि कर संग्रह आंकड़े के हिसाब से उनके पंचायत से कितना संग्रह हुआ और उसका कितना प्रतिशत उन्हें वापस मिल रहा है और कितना वह प्रदेश व राष्ट्र के खाते में डाल रहें हैं। जीएसटी का बंटवारा जो अभी तक राज्य और केंद्र स्तर के आधार पर अभी तक दो स्तर पर हो रहा है, वो केंद्र राज्य और पंचायत तीन स्तर पर होना चाहिए, तभी पंचायतों को वित्तीय स्वतंत्रता मिलेगी। सरकार को इसे त्रिस्तरीय करने के साथ ही टैक्स के एकाउंटिंग सिस्टम से लगायत वितरण सिस्टम में भी बदलाव करने पड़ेंगे।
(लेखक अर्थशास्त्र के वरिष्ठ लेखक एवं आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक विषयों के विश्लेषक हैं।)

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